भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही पिता का विशेष महत्व है। वाल्मीकि(रामायण, अयोध्या काण्ड) में कहा गया है ...
न तो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।
यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिपा॥
(यानि पिता की सेवा अथवा उनकी आज्ञा का पालन करने से बढ़कर कोई धर्माचरण नहीं है।)
दूसरी ओर यहां गुरू की महिमा भी कम नहीं आंकी गयी है ...
गुरू गोविन्द दोऊ खडे काके लागूं पायं।
बलिहारी गुरू आपनो गोविंद दियों बताए।।
यानि गुरू के पद को ईश्वर के बराबर महत्व दिया गया है।
जब पिता और गुरू दोनों का अलग अलग इतना महत्व हो , उनकी तुलना बडे बडे धर्म और ईश्वर से की जाती हो और जब पिता ही किसी के गुरू बन जाएं, तो उसका स्थान स्वयमेव सबसे ऊंचा हो जाता है। इस दृष्टि से मेरे पिता श्री विद्या सागर महथा जी मेरे लिए ईश्वर से कम नहीं। मेरा रोम रोम उनका ऋणी माना जा सकता है, पर समाज की ऐसी व्यवस्था में मात्र पुत्री होने के कारण मैं इस कर्ज को किसी तरह नहीं उतार सकती। इसके अतिरिक्त ज्योतिष के क्षेत्र में किए गए उनके अध्ययन के कारण उनके चरित्र के सैकडों पहलुओं में से किसी एक का भी चित्रण ब्लॉग जगत में मौजूद बहुतों को नहीं पच पाएगा और मैं इस पवित्र पोस्ट को विवादास्पद नहीं बनाना चाहती।
इसलिए चाहते हुए भी एक शिष्य के रूप में उनकी प्रतिभा, उनके संयमित जीवन, उनके सीख और उनके ज्ञान की चर्चा यहां नहीं करना चाहूंगी। समय आने पर सबके गुण अवगुण सामने आ ही जाते हैं। पर इतना अवश्य कहना चाहूंगी कि छह माह की उम्र में हुए चेचक से इनका स्वास्थ्य इतना बुरा हो गया था , इनके शरीर को इतना कष्ट था कि इनकी मुक्ति के लिए मेरी दादी जी इन्हें खुशी से बारंबार देवी मां को सौंपती थी कि वे इसे ले जाएं। पर देवी मां ने दादी जी की बात न मानकर हमारा बडा कल्याण किया, क्यूंकि इन्होने प्रकृति के एक बडे रहस्य को उजागर किया है , जिसे मैं 2011 के शुरूआत में दुनिया के सामने रखूंगी।
पूरे एक महीने के झारखंड प्रवास के बाद पिताजी वापस कल लौट गए , इस दौरान अधिकांश समय उन्होने बोकारो में ही व्यतीत किया , कहीं भी जाते , दो चार दिनों में पुन: मेरे यहां वापस हो जाते। विवाह के बाद मायके जाने पर ही कभी मुझे इतने दिनों तक साथ रहने का मौका मिला हो , पर इस बार मेरे घर पर उन्होने इतना समय दिया , वो मेरे जीवन में पहली बार हुआ। अपनी छह संतान में जितना स्नेह उन्होने मुझे दिया है , शायद ही किसी को मिला हो। मुझे तो यह देखकर ताज्जुब होता है कि सांसारिक सफलता की ओर कम ध्यान रहने के बावजूद बचपन से अभी तक की मेरी एक एक बात उन्हें याद रहती है।
सात महीने की उम्र में पेट के बल चलती हुई साफ सुथरे घर में एक सरसों के दाने पर मेरी न सिर्फ दृष्टि ही गयी थी , उसे मैंने अपनी उंगलियों से पकड भी लिया था। डेढ वर्ष की उम्र में पलंग से अपने पैरों को नीचे कर तुतलाते हुए 'दिल' 'दिल' कहकर स्वयं के गिर जाने की उन्हें धमकी दिया करती थी। तीन वर्ष की उम्र में मैने हिंदी अक्षरों को पहचानना शुरू कर दिया था और 'फ' 'ल' 'फल' , 'च' 'ल' 'चल' पढना शुरू कर दिया था।
चार वर्ष की उम्र में न सिर्फ 'ताली ताली तू तू तलती , दो हल डाली डाली फिरती' जैसी तुतलाती जुबान से 'कोयल रानी' की पूरी कविता सुनाया करती थी , वरन् 'छोटी चिडियां' नाम की कहानी को कंठस्थ कर लिया था और एक एक अर्द्धविराम , पूर्ण विराम पर जरूरत के अनुसार ठहराव के साथ लोगों को सुनाया करती थी। एक मां के लिए ये सब यादें स्वाभाविक है , पर पहली बार अपने पिता को मैने अपने जीवन की इतनी बातें याद रखते देखा है। मेरे मानसिक विकास पर कितनी पैनी निगाह थी उनकी ?
अध्यापन के अतिरिक्त भी मेरे पीछे उन्होने जितनी मेहनत की , अन्य भाई बहनों पर कभी उतना ध्यान नहीं दिया। अपने मामाजी के यहां से ग्रेज्युएशन करने के बाद मुझे बी एड कर लेने की सलाह दी गयी , पर मैने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की पढाई करने का फैसला किया। मेरे परिवार में पहले किसी बहन ने गांव के स्कूल से मैट्रिक करने से अधिक पढाई नहीं की थी। पहली बार मेरे दादा जी और दादी जी मुझे हॉस्टल में डालने को तैयार नहीं थे।
सो मैने एडमिशन लेकर घर में ही एम ए की पढाई करने का निश्चय किया। घर में ही दो वर्षों तक तैयारी की और फार्म भी भर लिया। एक एक पेपर की परीक्षा हर पांचवें दिन होनी थी। प्रत्येक परीक्षा से एक दिन पहले दोपहर के बाद वे मेरे साथ रांची के लिए निकलते , रातभर वहां कहीं ठहरते , सुबह परीक्षा देने के बाद अपने गांव वापस लौटते। यहां तक कि मैं चार घंटे परीक्षा भवन में होती , तो शहर में कई रिश्तेदार होने के बाद भी वे कहीं न जाते। उतनी देर भी वे गेट के बाहर ही टहलते रहते , इस भय से कि कहीं लडकों ने वॉक आउट किया तो ये कहां जाएगी। अन्य भाई बहनों पर इतना ध्यान देते मैने उन्हें कभी नहीं देखा।
अध्ययन मनन में विश्वास रखने वाले पिता जी का पद या अर्थोपार्जन के लिए पढाई लिखाई करने पर विश्वास नहीं था और यही कारण है कि सिर्फ अध्ययन मनन नहीं , वरन् मौलिक चिंतन में मेरे लगे होने से वे अपनी परंपरा को जीवित देखकर मुझसे खुश बने रहें। वैसे तो ज्ञान का खजाना ही है उनके पास , जब भी मिलना होता है , उनकी उपस्थिति में सिर्फ कुछ न कुछ जानने और सीखने में ही मेरा ध्यान लगा होता है।
वे एक बेहतर दुनिया का स्वप्न देखते हैं , पर सैद्धांतिक रूप से मजबूत होने के बावजूद अत्यधिक भावुकता होने तथा व्यवहारिकता की कमी से अपने सपने को पूरा नहीं कर पाते। वे मुझमें बडी उम्मीद देखते हैं , शायद मैं उनका सपना पूरा कर सकूं। 70 वर्ष की उम्र पार कर चुके पापा जी अभी पूर्ण रूप से स्वस्थ है और अभी भी दिन रात चिंतन में लगे हैं। मैं उनके स्वस्थ और दीर्घजीवी होने की कामना करती हूं !