अभी तक आपने पढा .. बोकारो में कक्षा 1 और 3 में पढने वाले दो छोटे छोटे बच्चों को लेकर अकेले रहना आसान न था , स्वास्थ्य के प्रति काफी सचेत रहती। पर बच्चों को कभी सर्दी , कभी खांसी तो कभी बुखार आ ही जाते थे , मेरी परेशानी तो जरूर बढती थी , पर यहां बगल में ही एक डॉक्टर के होने से तुरंत समाधान निकल जाता। यहां आने का एक फायदा हुआ कि हमारे यहां के डॉक्टर जितने एंटीबायटिक खिलाते थे , उससे ये दोनो जरूर बच गए , इससे दोनो की रोग प्रतिरोधक शक्ति को तो फायदा पहुंचा ही होगा। वहां भले ही इलाज में हमारे पैसे खर्च नहीं होते थे , पर दोनो ने बचपन से ही एलोपैथी की बहुत दवाइयां खा ली थी । यहां के डॉक्टर की फी मात्र 35 रूपए थी और अधिक से अधिक 25 रूपए की दवा लिखते , आश्चर्य कि कभी उनके पास दुबारा जाने की जरूरत भी नहीं होती।
हां , बाद में बच्चों के 10-11 वर्ष की उम्र के आसपास पहुंचने पर दोनो के अच्छे शारीरिक विकास के कारण उनके द्वारा दिया जानेवाला डोज जरूर कम होने लगा था , जिसे मैं समझ नहीं सकी थी , दवा खिलाने के बाद भी कई बार बुखार न उतरने पर रात भर मुझे पट्टी बदलते हुए काटने पडे थे। डोज के कम होने से दवा के असर नहीं करने से एक बार तो तबियत थोडी अधिक ही बिगड गयी । एक दूसरे डॉक्टर ने जब मैने दवा का नाम और डोज सुनाया तो बच्चों का वेट देखते हुए वे डॉक्टर की गल्ती को समझ गए और मुझसे डोज बढाने को कहा। तब मेरी समझ में सारी बाते आयी। डॉक्टर ने चुटकी भी ली कि मम्मी तुमलोगों को बच्चा समझकर आम और अन्य फल भी कम देती है क्या ??
आए हुए दो महीने भी नहीं हुए थे , बरसात के दिन में बडे बेटे को कुत्ते ने काट लिया, तब मै उन्हें अकेले निकलने भी नहीं देती थी। चार बजे वे खेलने जाते तो मैं उनके साथ होती, उस दिन भी किसी काम के सिलसिले में बस पांच मिनट इंतजार करने को कहा और इतनी ही देर में दरवाजा खोलकर दोनो निकल भी गए , अभी मेरा काम भी समाप्त नहीं हुआ था कि छोटे ने दौडते हुए आकर बताया कि भैया को कुत्ते ने काट लिया है। पडोसी का घरेलू कुत्ता था , पर कुत्ते के नाम से ही मन कांप जाता है। तुरंत डॉक्टर को दिखाया , टेटवेक के इंजेक्शन पडे। घाव तो था नहीं , सिर्फ एक दांत चुभ गया था , हल्की सी एंटीबायटिक पडी। कुत्ते का इंतजार किया गया , कुत्ता बिल्कुल ठीक था , इसलिए एंटीरैबिज के इंजेक्शन की आवश्यकता नहीं पडी, पर काफी दिनों तक हमलोग भयभीत रहे।
पता नहीं दवा कंपनी के द्वारा दिए जाने वाला कमीशन का लालच था या और कुछ बातें , बाद में हमें यहां कुछ डॉक्टर ऐसे भी दिखें , जो जमकर एंटीबॉयटिक देते थे। बात बात में खून पेशाब की जांच और अधिक से अधिक दवाइयां , हालांकि उनका कहना था कि मरीजों द्वारा कचहरी में घसीटे जाने के भय से वे ऐसा किया करते हैं। खाने पीने और जीवनशैली में सावधानी बरतने के कारण हमलोगों को डॉक्टर की जरूरत बहुत कम पडी , इसलिए इसका कोई प्रभाव हमपर नहीं पडा !!