Gatyatmak Jyotish kya hai ?
फलित ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ग्रहों की अवस्था और उनकी गति के अनुसार ही मनुष्य के जीवन में पड़नेवाले ग्रहों के प्रभाव का बारह बारी वर्षों के विभाजन को गत्यात्मक दशापद्धति कहते हैं। इसमें प्रत्येक ग्रहों के प्रभाव को अलग अलग 12 वर्षों के लिए निर्धारित किया गया है। जन्म से 12 वर्षों तक चंद्रमा , 12 से 24 वर्षों तक बुध , 24 से 36 वर्षों तक मंगल , 36 से 48 वर्षों तक शुक्र , 48 से 60 वर्षों तक सूर्य , 60 से 72 वर्षों तक बहस्पति , और 72 से 84 वर्ष की उम्र तक शनि का प्रभाव मानव जीवन पर पडता है। प्रत्येक ग्रह अपने दशाकाल में अपना फल अपने सापेक्षिक गत्यात्मक शक्ति के अनुरूप ही अच्छा या बुरा प्रदान करते हैं। इस दशा पद्धति में सभी ग्रहों की एक खास अवधि में निश्चित भूमिका रहती है। विंशोत्तरी दशा पद्धति की तरह एकमात्र चंद्रमा का नक्षत्र ही सभी ग्रहों को संचालित नहीं करता।
इस पद्धति के जन्मदाता श्री विद्यासागर महथा , एम ए , ज्योतिष वाचस्पति , ज्योतिष रत्न , पेटरवार , बोकारो निवासी हैं , जिन्होने इस पद्धति की नींव सन 1975 जुलाई में रखी। इस दशा पद्धति का संपूर्ण गत्यात्मक विकास 1987 जुलाई तक होता रहा। 1987 जुलाई के बाद अब तक हजारो कुंडलियों मे इस सिद्धांत की प्रायोगिक जांच हुई और सभी जगहों पर केवल सफलताएं ही मिली। अभी गत्यात्मक ज्योतिष किसी भी कुंडली को ग्रहों की शक्ति के अनुसार लेखाचित्र में अनायास रूपांतरित कर सकता है। किसी भी व्यक्ति के जीवन की सफलता , असफलता , सुख , दुख , महत्वाकांक्षा , कार्यक्षमता और स्तर को लेखाचित्र में ईस्वी के साथ अंकित किया जा सकता है। जीवन के किस क्षेत्र में किसकी अभिरूचि अधिक है और जीवन के किस भाग में इसका प्रतिफलन होगा , इसे ग्राफ खींचने के बाद अनायास ही बतलाया जा सकता है। जीवन का कौन सा भाग स्वर्णिम होगा और कौन सा काफी कष्टप्रद , यह ग्राफ देखकर ही बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक वर्ग आसानी से समझ सकेंगे। जीवन में अकसमात उत्थान और गंभीर पतन की सूचना भी इस ग्राफ से ज्ञात की जा सकती है।
इस दशापद्धति के विकास के क्रम में ही ग्रहों की शक्ति को मापने के लिए गति से संबंधित कुछ सूत्रों की खोज की गयी है , जो ग्रहों की सम्यक शक्ति का निरूपण करती है। ग्रहों के स्थान बल , दिक बल , काल बल , नैसर्गिक बल दुक बल चेष्टा बल और अष्टकवर्ग से भिन्न एक गत्यात्मक शक्ति को महत्व दिया गया है। यह हर हालत में ग्रहों की सही शक्ति का आकलन करता है। 1975 के ज्योतिष मार्तण्ड के जुलाई अंक में प्रकाशित ‘दशाकाल निरपेक्ष अनुभूत तथ्य’ लेख में पहली बार दर्शाया गया था कि प्रत्येक ग्रहों का 12 वर्ष तक मुख्य रूप से प्रभाव बना रहता है और चंद्र , बुध , मंगल , शुक्र , सूर्य, बुहस्पति , शनि , यूरेनस , नेप्च्यून और प्लूटो बारी बारी से संपूर्ण जीवन का प्रतिनिधित्व कर लेते हैं।
सन 1981 में गत्यात्मक दशा पद्धति के जन्मदाता श्री विद्यासागर महथा जी पहली बार यह अहसास हुआ कि प़ृथ्वी से निकट रहनेवाले प्रत्येक आकाशीय पिंड अपने दशाकाल में जातक को प्रतिकूल परिस्थितियों का बोध कराता है। विलोमत: प़ृथ्वी से अतिदूरस्थ् ग्रह जातक को अनुकूल परिस्थितियों का बोध कराते हैंा यानि इनके पास अधिक दायित्व नहीं होने देते। और इस तरह प़ृथ्वी से अतिदूरस्थ और निकटस्थ् ग्रह अपने दशाकाल में भिन्न भिन्न ही परिणाम प्रस्तुत करते हैं। किसी भी ग्रहों के दशाकाल के मध्यकाल में इस प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता है। 18वे वर्ष में बुध , 30 वें वर्ष में मंगल , 42 वें वर्ष में शुक्र , 54 वें वर्ष में सूर्य , 66 वें वर्ष में बृहस्पति और 78 वें वर्ष में शनि अपना फल विशेष तौर पर प्रदान करते हैं। वक्र या ऋणात्मक ग्रहों का परिणाम दायित्व संयुक्त होता है , जबकि शीघ्री और सकारात्मक ग्रह उल्लिखित वर्षों में दायित्वहीनता का बोध कराते हैं।
ग्रहों की एक ऐसी भी स्थिति होती है , जब न तो वे पृथ्वी के निकट होते हैं और न ही बहुत अधिक दूरी बनाए होते हैं , बल्कि वे पृथ्वी से औसत दूरी पर होते हैं। बुध और शुक्र पूर्वी या पश्चिमी क्षैतिज पर सर्वोच्च उंचाई पर होते हुए प्रतिदिन 1 डिग्री की गति बनाते हैं । चंद्रमा , मंगल , बुहस्पति , शनि आदि ग्रह सूर्य से 90 डिग्री की औसत दूरी पर होते हैं। ऐसी स्थिति में इनके पास कार्यक्षमता और दायित्वबोध सबसे अधिक होता है। जब चंद्रमा औसत से कम प्रकाशमान हो और शेष ग्रह मार्गी या वक्र होने के आसपास हो , तो जातक को अति महत्वपूर्ण दायित्व और कर्तब्यबोध से अवगत कराता है। यदि सापेक्षिक ग्रह धनात्मक हो , तो कर्तब्यपरायणता के साथ उन्हें जबर्दस्त सफलता मिलती है और सापेक्षिक ऋणात्मक गति में होने से इन्हीं ग्रहों के कारण जातक को कर्तब्यपरायणता के बावजूद असफलता ही हाथ लगती है।
इस गत्यात्मक दशा पद्धति का जो लेखाचित्र तैयार होता है , वह वस्तुत: आकाश में स्थित ग्रहों की स्थिति , सूर्य और पृथ्वी सापेक्ष उनकी दूरियों और गतियों का सम्यक चित्रण है। आकाश में सूर्यतल से नीचे दिखलाई पडनेवाले ग्रह पृथ्वी के कम निकट और कम गतिवाले या वक्र होते हैं । इसके विपरीत आकाश में सूर्यतल से उपर दिखलाई पडनेवाले ग्रह पृथ्वी से अधिक दूर और अधिक गतिवाले होते हैं। एकमात्र चंद्रमा ही हर समय पृथ्वी से समान दूरी पर होने के बावजूद सूर्य के निकट आने पर कम प्रकाशमान और अधिक दूरी पर रहने से अधिक प्रकाशमान होता है। कम प्रकाशमान चंद्रमा को ग्राफ में मध्य में और अधिक प्रकाशमान चंद्रमा को ग्राफ में उपर दिखलाया जाता है। अन्य वक्री ग्रहों को ग्राफ में नीचे , सामान्य ग्रहों को ग्राफ में मध्य में और अतिशीघ्री ग्रहों को ग्राफ में उपर दिखलाया जाता है। यह ग्राफ व्यक्ति की परिस्थ्तियों को दर्शाता है। जातक अपने ग्राफ के अनुसार ही अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थ्ितियां प्राप्त करते हैं। उनका ग्राफ ही उनकी कार्यक्षमता और महत्वाकांक्षा को निर्धारित करता है। वे जीवन के प्रत्येक उत्थान और पतन अपने ग्राफ के अनुसार हीप्राप्त करते हैं। यह दशापद्धति ज्योतिष को विज्ञान साबित करने में पूर्ण सक्षम है। पाठक अपने जन्म वर्ष को छ: वर्ष के अपवर्तांक से जोडते चले जाएं , इसकी वैज्ञानिकता स्वत: प्रमाणित हो जाएगी ।