अपने जीवन की सब सुख सुविधा छोडकर अपने चिंतन के प्रति समर्पित होकर ही कोई लेखक लेखन की निरंतरता बना पाता है। उसका लक्ष्य अपने अनुभवों और विचारों का समाज में बेहतर प्रचार प्रसार ही होता है , क्यूंकि एक प्रतिशत से भी कम मामलों में ही आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति लेखन के माध्यम से हो पाती है। पर जहां कुछ लोग लेखक के विचारो और अनुभवों की कद्र करते हैं , वहीं समाज में विपरीत मानसिकता रखनेवालों के द्वारा लेखकों का विरोध भी देखने को मिल जाता है।
ऐसे समय में कभी कभी लेखन से विरक्ति सी भी हो जाती है , पर कोई न कोई सुखद घटना फिर आत्मविश्वास को जन्म देते हुए नए जज्बे के साथ चिंतन मनन को बाध्य करती है और हर किसी को अपने कर्तब्य पथ पर बनाए रहती है। बाजार में किसी लेखक के लेखों , उनके पुस्तकों के प्रकाशित होने के साथ ही साथ ऐसे पाठक जन्म ले लेते हैं , जो एक नई दृष्टि से हर कार्य को , हर परिणाम को , हर घटना को देख सके। पाठकों की संख्या में बढोत्तरी के साथ ही साथ लेखक का महत्व बढता जाता है।
मैने 1991 से ही विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखना शुरू किया था और बहुत जल्द ही मेरा लेखन एक प्रकाशक की नजर में आ गया था। इसके कारण 1996 में ही एक पुस्तक बाजार में आ गयी थी , दो वर्षों के अंदर ही इसकी सारी प्रतियां बिक चुकी थी और 1999 में ही इसके दूसरे संस्करण को प्रकाशित करने के लिए मुझे हस्ताक्षर करना पडा था। उस पुस्तक में मैने शीघ्र ही बाजार में दूसरी पुस्तकों के लाने और पाठकों से संवाद बनाए रखने का वादा किया था , पर कुछ न कुछ समस्या के कारण इतने दिनों के उपरांत भी बाजार में मेरी या मेरे पिताजी की कोई पुस्तक नहीं आ सकी थी। चार वर्ष पूर्व तक पाठकों ने मेरे पते पर संपर्क भी किया था , पर इधर तीन वर्षों से पता बदलने की वजह से वे संवाद भी नहीं कर पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में मेरी अगली पुस्तक के इंतजार कर रहे मेरे एक पाठक महोदय को पिछले दिनों मुझे ढूंढने के लिए पुलिस का सहारा लेना पडा।
मेरी उक्त पुस्तक में बोकारो , बिहार का पता लिखा था , दरभंगा (बिहार) के डी आई जी साहब उनके परिचित थे , उन्होने मेरी खबर लेने के लिए उनसे संवाद किया। बोकारो अब झारखंड में है , उन्होने बोकारो के एस पी साहब को खबर भेजा , इतने बडे बोकारो में भी मेरा पता लगाना आसान नहीं था , पर पुस्तक में मेरे जन्मस्थान पेटरवार के बारे में दी गयी जानकारी से पुलिस को एक सूत्र मिला। एस पी साहब ने पेटरवार के थाना इंचार्ज को खबर की , वहां उन्हें मेरे पिताजी को फोन नंबर मिला। और इस तरह आखिरकार पुलिस ने मुझे ढूंढ ही लिया ।
पर इतना सब होने के बाद भी मुझे ये मालूम न हो सका कि मुझे ढूंढा क्यूं जा रहा है। पापा जी के पास कई फोन आने के बाद अंत में सारा माजरा खुलकर सामने आया , पापाजी से उनकी मीटिंग भी तय हो गयी है। उनका मुझसे अभी तक संवाद नहीं हो सका है , पर मेरे ब्लॉग का पता भी उनके पास चला गया है। हो सकता है , एक दो दिनों में मेरे पास उनका मेल भी आ जाए। एक सीख तो मिल ही गयी है , अच्छा करते रहो , अच्छा सोंचते रहो , अच्छा लिखते रहो , देखने सुनने पढने वाले मिलते रहेंगे।