दुर्गापूजा में शहर से बाहर थी , कई दिनों बाद बोकारो लौटना हुआ , इस वर्ष देशभर में दुर्गापूजा के साथ साथ कॉमनवेल्थ गेम्स की भी धूम रही। इस कार्यक्रम की सफलता ने जहां पूरी दुनिया के समक्ष भारत का सर ऊंचा किया , वहीं इस आयोजन की आड में पैसों का बडा हेर फेर मन को सालता रहा। भ्रष्टाचार के मामलों में हमारा देश दिन ब दिन आगे बढता जा रहा है और कोई इसे सुधारने की कोशिश नहीं कर रहा , बस हर कोई एक दूसरे को गाली ही दे रहे हैं। किसी की समस्या से दूसरे को कोई मतलब नहीं , क्या छोटे और क्या बडे , सब अपने अधिकारों का दुरूपयोग ही कर रहे हैं।
अभी हाल में ही एक काम के सिलसिले में अचानक रांची हजारीबाग जानेवाले एन एच पर ही बोकारो से 30 किमी दूर के गांव में जाने की आवश्कता पड गयी । परेशानी की कोई बात नहीं थी , मेरे निवासस्थान से आधे किमी से भी कम दूरी पर बस स्टॉप है , धनबाद और अन्य स्थानों से आधे आधे घंटे में अच्छी आरामदेह बसें रांची की ओर जाया करती हैं , मैं बिना किसी को कहे सुने आराम से तैयार होकर घर से निकल पडी। संयोग से एक बस हजारीबाग के लिए बोकारो से ही खुल रही थी , मैने कंडक्टर से एक टिकट बुक करने को कहा , पर जगह का नाम सुनते ही उसने कहा कि आपको सीट नहीं मिलेगी , केबिन में बैठकर जाओ, जबकि उस समय बस पूरी खाली थी।
बसवाले पहले पूरी दूरी तक के यात्री को ही सीट देना चाहते थे और छोटे छोटे दूरी तक के यात्री को इधर उधर बैठाकर, खडे करके भी किराया ले लेते हैं। क्यूंकि यदि पूरी दूरी के यात्री न मिले , तो इनसे लाभ कमाया जा सके। मतलब दोनो हाथ में लड्डू , जबकि मालिक को सिर्फ सीट के पैसेंजर के ही किराये दिए जाते हैं , वो भी पूरे नहीं। मैने कहा,'ये क्या बात हुई , या तो आप वहां स्टॉपेज ही न रखें या फिर यात्रियों को सीट दें। यदि आपको नुकसान पहुंच रहा हो , तो स्पष्ट कहें कि अगले स्टॉपेज तक का किराया देने पर सीट दी जाएगी। आज के आरामपसंद युग में थोडा अधिक किराया देना मुश्किल भी नहीं।' पर उन्हें मेरी बात सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्होने न मुझसे अधिक किराया लिया और न ही मुझे मेरा पसंदीदा आगे का सीट मिला, यह कहते हुए कि वह सीट बुक है और आपका तो मैडम बस आधे घंटे का सवाल है। उनके कहने के स्टाइल से लगा कि वे मजबूर हैं , पर यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मेरे उतरने उतरने तक उस सीट पर कोई भी पैसेंजर नहीं बैठा।
वहां पहुंचने पर जिस सरकारी ऑफिस में मेरा काम था , वहां मुझे कुछ पुराने कागजात निकलवाने थे। मैने एक सज्जन से पहले ही इस बात से ऑफिसवालों को आगाह करवा चुकी थी , इसलिए वे तैयार थे। मेरे पहुंचते ही उन्होने पुराने फाइलों को खंगाला और बीस से पच्चीस मिनट के अंदर मेरे कागजात मुझे सौंप दिए। मेरे लिए कोई दो नंबर का कार्य उन्होने नहीं किया था , इस काम को करना उनका कर्तब्य था , क्यूंकि इसके लिए सरकार उन्हें हमारे ही द्वारा दिए गए कर से वेतन दिया करती है। पर मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि काम के होते ही वे स्टाफों को मिठाई खिलाने के बहाने से इशारे से कुछ पैसों की मांग करने लगें।
मेरे मन को जो बात कचोटती रही , वह यह कि जिन्हें भी जो अधिकार मिल रहे हैं , वह उसी का दुरूपयोग कर रहा है और ऊपरवाले को गाली दे रहा है। मगर यदि वो ऊपर होता , तो वो भी ऐसा ही करता। वे सरकारी कर्मचारी हैं , हर महीने मासिक तनख्वाह मिलती है , पर जो उनके सामने होते हैं , वे कभी कभी लाचार भी होते होंगे। क्या ही अच्छा होता कि हम सामनेवाले की समस्याओं को भी समझते , ईमानदारी हममें कूट कूट कर भरी होती, हर स्तर पर जिम्मेदारियों का सही ढंग से पालन किया जाता। आज हम किसी को गाली देने से नहीं चूकते , पर जब मुझे कोई अधिकार मिलता है , उसका दुरूपयोग करने लगते हैं।