नदी का रास्ता कविता का भावार्थ
अपने भाग्य पर विश्वास न करते हुए अक्सर आप सभी कर्मयोग की चर्चा करते हैं , पर क्या आप सबों को ऐसा नहीं लगता कि हमारा कर्म भी परिस्थितियों के नियंत्रण में होता है। गत्यात्मक ज्योतिष का मानना है कि काम करते वक्त , सोंचते वक्त , निर्णय लेते वक्त हम बहुत सी सीमाओं में बंधे होते हैं , इसी बात को समझाने के लिए बालाकृष्ण राव की सुंदर रचना ( नदी को रास्ता किसने दिखाया ?? ) आपके लिए प्रस्तुत है......
इस कविता का भावार्थ - इस रचना के माध्यम से कवि बालाकृष्ण राव ने बताया है कि कोई भी अपनी उपलब्धियों को अपनी मेहनत का प्रतिफल मानता है, जबकि सत्य यह भी है कि प्रकृति जिसे जिधर ले जाना चाहती है, उसे उधर ही ले जाती है, जिससे जो करवाना चाहती है, वही करवाती है, हम प्रकृति की इच्छा का सम्मान करें और कर्तव्य के पथ पर बने रहे।
नदी को रास्ता किसने दिखाया ?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्मुक्त बहने दे ?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिंधु की गंभीरता
स्वच्छंद बहकर ?
इसे हम पूछते आए युगों से,
और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी का।
मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने,
बनाया मार्ग मैने आप ही अपना।
ढकेला था शिलाओं को,
गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊंचे प्रपातों से,
वनों में , कंदराओं में,
भटकती , भूलती मैं
फूलती उत्साह सेप्रत्येक बाधा विघ्न को
ठोकर लगाकर , ठेलकर,
बढती गयी आगे निरंतर
एक तट को दूसरे से दूरतर करती।
बढी संपन्नता के
और अपने दूर दूर तक फैले साम्राज्य के अनुरूप
गति को मंद कर...
पहुंची जहां सागर खडा था
फेन की माला लिए
मेरी प्रतीक्षा में।
यही इतिवृत्त मेरा ...
मार्ग मैने आप ही बनाया।
मगर भूमि का है दावा,
कि उसने ही बनाया था नदी का मार्ग ,
उसने ही
चलाया था नदी को फिर
जहां , जैसे , जिधर चाहा,
शिलाएं सामने कर दी
जहां वह चाहती थी
रास्ता बदले नदी ,
जरा बाएं मुडे
या दाहिने होकर निकल जाए,
स्वयं नीची हुई
गति में नदी के
वेग लाने के लिए
बनी समतल
जहां चाहा कि उसकी चाल धीमी हो।
बनाती राह,
गति को तीव्र अथवा मंद करती
जंगलों में और नगरों में नचाती
ले गयी भोली भूमि को भूमि सागर तक
किधर है सत्य ?
मन के वेग ने
परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर
रास्ता अपना निकाला था,
कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस
जिधर परिवेश ने झुककर
स्वयं ही राह दे दी थी ?
किधर है सत्य?
क्या आप इसका जबाब देंगे ?