एक कथा में कहा गया है कि पूरी धरती को जीतने वाला एक महत्वाकांक्षी राजा अधिक दिन तक खुश न रह सका , क्यूंकि वह चिंतित था कि आपनी बेटी की शादी कहां करे , क्यूंकि इस दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति न सिर्फ अपनी बेटियों का विवाह अपने से योग्य लडका ढूंढकर किया करता है , वरन् अपने बेटों को खुद से बेहतर स्थिति में भी देखना चाहता है। यही कारण है कि समय के साथ बेटे बेटियों को अधिक गुणवान बनाने के लिए हर कार्य को करने और सीखने की जबाबदेही दी जाती थी , वहीं बेटियों के विवाह के लिए गुणवान लडके के लिए अधिक से अधिक खर्च करने , यहां तक कि दहेज देने की प्रथा भी चली। इस हिसाब से दहेज एक बेटी के पिता के लिए भार नही , वरन् खुशी देने वाली राशि मानी जा सकती थी। यह क्रम आज भी बदस्तूर जारी है।
इस सिलसिले में अपने गांव की उस समय की घटना का उल्लेख कर रही हूं , जब व्यवहारिक तौर पर मेरा ज्ञान न के बराबर था और पुस्तकों में पढे गए लेख या मुद्दे ही मस्तिष्क में भरे होते थे। तब मैं दहेज प्रथा को समाज के लिए एक कलंक के रूप में देखा करती थी। पर विवाह तय किए जाने के वक्त कन्या पक्ष को कभी परेशान नहीं देखा। अपने सब सुखों को छोडकर पाई पाई जोडकर जमा किए गए पैसों से कन्या के विवाह करने के बाद माता पिता को अधिकांशत: संतुष्ट ही देखा करती थी , जिसे मैं उनकी मजबूरी भी समझती थी। पर एक प्रसंग याद है , जब एक चालीस हजार रूपए में अपनी लडकी का विवाह तय करने के बाद मैने उसके माता पिता को बहुत ही खुश पाया। उनके खुश होने की वजह तो मुझे बाद में उनकी पापाजी से हुई बात चीत से मालूम हुई। उन्होने पापाजी को बताया कि जिस लडके से उन्होने विवाह तय किया है , उसके हिस्से आनेवाली जमीन का मूल्य चार लाख होगा। वे चालीस हजार खर्च करके चार लाख का फायदा ले रहे हैं , क्यूंकि समय के साथ तो सारी संपत्ति उसकी बेटी की ही होगी न। शायद इसी हिसाब के अनुसार लडके की जीवनभर की कमाई को देखते हुए आज भी दहेज की रकम तय की जाती है।
और लडके की मम्मी की बात सुनकर तो मैं चौंक ही गयी। जैसा कि हमारे समाज में किसी भी शुभ कार्य को करने के पहले और बाद में ईश्वर के साथ गुरूजन और बुजुर्गों के पैर छूने की प्रथा है , लडके की मां अपने बेटे के विवाह तय करने के बाद मेरे दादाजी और दादीजी के पैर छूने आयी। पैर छूने के क्रम में उन्होने बताया ... ' आज मैं लडके को हार गयी हूं।' यह सुनकर मैं तो घबडा गयी , परेशान थी कि ये हार गयी हैं तो इतनी खुश होकर लडकी की प्रशंसा क्यूं कर रही हैं , आधे घंटे तक मैं उनकी बात गौर से सुनती गयी कि इन्हे किस बात की हार मिली है , पर मेरे पल्ले कुछ भी न पडा। उनके जाने के बाद भी मैं अपनी भावनाओं को रोक न सकी और उनके हार की वजह पूछा , दादीजी ने जो बताया , वह और भी रोचक था , 'लडके का विवाह तय करने को इस क्षेत्र में हारना कहा जाता है' मेरे पूछने पर उन्होने स्पष्ट किया कि कन्या की सुंदरता , गुण , परिवार और साथ में दहेज की रकम मिलकर इन्हें हारने को मजबूर कर दिया। इस तरह दहेज और कन्या देकर भी लडकी वाले जीत और सबकुछ लेकर भी लडकेवाले हार जाया करते थे ।
दहेज और कन्या देकर भी लडकी वाले जीतते थे .. सबकुछ लेकर भी लडकेवाले हार जाया करते थे !!
Reviewed by संगीता पुरी
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6/14/2010
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19 टिप्पणियां:
absolutely correct
रोचक है ।
सार्थक संस्मरण की प्रस्तुति संगीता जी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
:)
सार्थक पोस्ट
अच्छी प्रस्तुति। रोचक जानकारी।
दानियों का हाथ हमेशा ऊपर रहता है!
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याचकों और दानदाताओं की
कभी बराबरी नही हो सकती!
ये पहलु बिलकुल सही लगा, जो दिल से दिया जाये उस में गलती नहीं पर जो माँगा जाये तब वो दहेज़ गलत है
व्यापार की दुनिया का एक पहलू यह भी
सादर वन्दे !
बहुत सुन्दर तरीके से समझाया है आपने इस जटिलता को |
रत्नेश त्रिपाठी
पहली बार ऐसा कुछ सुना सुन कर अच्छा लगा ..............और सही है जो ख़ुशी से दिया जाये वो दहेज़ नहीं पर जो जबरदस्ती माँगा जाये वो दहेज़ ही नहीं बल्कि भीख है या फिर लड़के के बदले ली जाने वाली रकम !!!!!!!!!!
आज की दहेज़ पर्था को परिभाषित करते हुए एक वाकया कुछ दिन पहले लिखा था " अपने लड्डू का भाव तुम बताओ" समय हो तो पदियेगा ज़रूर ................सदर नमश्कार .......
" sarthak post "
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
अच्छा विश्लेषण है। विवाह के बाद कहाँ रह जाते हैं बेटे माँ के तो इसलिए ही परम्परा बनी होगी हारने की।
अच्छी पोस्ट!!
बेटे को हारने वाली पोस्ट अच्छी लगी ।
संगीता जी रोचक ढंग से आपने विषय को विस्तार दिया अच्छा लगा पढ़कर. हमारे रीती रिवाजों परम्पराओं से हम किस कदर लिपटे हुए हेँ की कभी कभार ...लकीर के फकीर बने रहने को मजबूर होते हेँ तो कभी स्वार्थ वश लड़की हो या लड़का सब कुछ दांव पर लगा देने को आतुर
न जीत है न हार है...
रोचक पोस्ट...अजीत जी की बात में बहुत दम है.. :):)
दहेज़ को बहुत ही रोचकता से प्रस्तुत किया है आपने, वास्तव में उपहार को दहेज़ कहा जाता था | जो माँगा जाये उसे सौदा कहा जाता है | आज अधिकतर यही हो रहा है |
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