कल आनंद सिंह जी के एक नए ब्लॉग क्रांतिकारी विचार में एक कविता पढने को मिली , जिसमें उन्होने ईश्वर की सत्ता में यकीन रखनेवाले मित्रों से एक अपील की थी ......
उनसे पूछना कि जब हीरोशिमा और नागासाकी पर
शैतान अमेरिका गिरा रहा था परमाणु बम,
तो मानवता का कलेजा तो हो गया था छलनी छलनी ,
लेकिन महाशय के कानों में क्यों नहीं रेंगी जूँ तक?
फिर उनसे पूछना कि जब दिल्ली की सड़कों पर
कोंग्रेसी राक्षस मासूम सिखों का कर रहे थे कत्लेआम,
तब यह धरती तो काँप उठी थी
लेकिन बैकुंठ में क्यों नहीं हुई ज़रा सी भी हलचल?
उनसे यह भी पूछना कि जब गुजरात में
संघ परिवार के ख़ूनी दरिंदों द्वारा
मुस्लिम महिलाओं का हो रहा था सामूहिक बलात्कार,
तब इंसानियत तो हो गयी थी शर्मसार
पर जनाब के रूह में क्यों नहीं हुई थोड़ी भी हरकत?
मैने कल ब्लॉग4वार्ता में भी इस पोस्ट की चर्चा की थी , ताकि उन्हें जबाब मिल पाए। पर इतने पाठकों में से किसी से भी उन्हें संतुष्टि होने सा जबाब नहीं मिला। मैं ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखती हूं , पर यह मानते हुए कि वह भी मनमानी नहीं कर सकता। वह भी प्रकृति के नियमों से ही बंधा है , इसलिए अधिक पूजा पाठ या कर्मकांड के कारण उसे खुश करके सांसारिक या अन्य प्रकार की सफलता प्राप्त की जा सकती है , यह हमारा भ्रम है। ऐसे कर्मकांडों को मैं महत्वपूर्ण मानती हूं , जब उससे समाज का या पर्यावरण का भला हो रहा हो। सामाजिक सौहार्द बिगाडने वाला , चारित्रिक रूप से कमजोर बनाने वाला और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाला कर्मकांड मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। इसलिए मेरे द्वारा दिया जाने वाला जबाब लेखक को संतुष्टि नहीं भी दे सकता, पर फिर भी अपने तर्क के हिसाब से इसका जबाब देना आवश्यक समझूंगी।
एक पिता के लिए अपना संतान बहुत प्यारा होता है , पर उसके सही विकास के लिए डांट फटकार और मार पीट करने को भी बाध्य होता है। वर्ष में एक या दो दिन की डांट मार से वह या आंख दिखाने से वह पूरे वर्षभर पिता के भय से भयभीत रहता है और किसी भी गलत काम की हिम्मत नहीं कर पाता। उसी प्रकार समय समय पर प्रकृति को भी कुछ ऐसी व्यवस्था रखनी पडती है , ताकि इतने बडे संसार का काम सुचारू ढंग से चल सके। प्रकृति को ही कुछ लोग ईश्वर माना करते हैं । एक बच्चे के पालन पोषण में बहुत देखभाल की आवश्यकता होती है , यदि देखभाल के अभाव में एक दो बच्चे मौत के मुंह में न जाएं या अविकसित न रहें , तो बच्चों को ढंग से पालने की झमेले में कौन फंसना चाहेगा ??
प्रतिदिन करोडों व्यक्ति कहीं न कहीं आ जा रहे हैं , खतरे का काम कर रहे हैं , छिटपुट एक दो दुर्घटनाएं घटती हैं , सैकडों के जान चले जाते हैं। यदि समय समय पर ये दुर्घटनाएं नहीं हो , तो सोंचिए क्या होगा ?? न कोई यातायात के नियमों का पालन करे , न खुद पर नियंत्रण और न ही वाहन को सुरक्षित रखने का प्रयास। पिछले वर्ष जयपुर के पेट्रोल पंप में आग लगी थी , उस वक्त भी किसी नास्तिक ने ऐसा ही सवाल उठाया था। ईश्वर जब किसी को बुरा नहीं चाहता , तो ऐसी घटनाएं किसके अच्छाई के लिए घटा करती है ?? पर एक स्थान पर लीकेज की इस बडी घटना में भले ही अरबों का नुकसान हुआ हो , पर उसके बारे में सुनकर ही दुनियाभर के पेट्रोलवाले सावधान हो गए होंगे और उससे सौगुणे की देख रेख सही ढंग से होने लगती है।
भले ही कभी कभी निर्दोष के कष्ट को देखकर हम परेशान हो जाते है , पर प्रकृति में कोई भी काम बिना नियम के नहीं होते , उसमें से कुछ को हम समझ चुके हैं और कुछ की खोज निरेतर जारी है। । पर यदि खतरे की कोई संभावना ही न रहे , तो दुनिया में कोई भी सावधानी नहीं बरत सकेगा। इसलिए ईश्वर या प्रकृति जो भी करती है , उसका उद्देश्य शुभ हुआ करता है। यदि प्रकृति में कोई भी काम बिना नियम के होते , तो आज विज्ञान का विकास न हो पाता। विज्ञान इन नियमों को ही तो प्रकृति के नियमों का सहारा लेकर मानव जीवन को सरल बनता है। सभी जीवों में मनुष्य ही ऐसा है , जो प्रकृति के रहस्यों को ढूंढने में समर्थ है , क्यूंकि उसके मस्तिष्क की खास बनावट है , जो उसने प्रकृति से ही पायी है।
कोई गलत काम करने से पूर्व प्रकृति की ओर से हमारे दिमाग में बार बार संदेश जाता है , 'हम गलत कर रहे हैं' , पर मनुष्य गलत काम करने के वक्त उसे दबाने की पूरी कोशिश करता है। कोई भी जीव अपनी प्रकृति के विरूद्ध काम नहीं करता , पर प्रकृति ने मनुष्य को अच्छे उद्देश्य के लिए जो दिमाग दिया है , उसका वही दुरूपयोग कर रहा है। जहां गल्ती बडी करनी होती है , वहां आत्मा के इस शोर को दबाने के लिए वह मदिरा का सेवन करना है , होश खोकर गलत काम किया करता है , और सारी जबाबदेही ईश्वर के मत्थे । प्रकृति या ईश्वर से कोई प्रश्न पूछने की आवश्यकता नहीं , आज वहीं हमसे दस प्रश्न पूछ सकती है। वह उसने जितना दिया वह कम नहीं। उसे जिम्मेदारी पूर्वक चलाना नहीं आता , ईश्वर पर दोषारोपण करना तो बहुत आसान है।