indian religion and culture
ब्लॉग जगत में सबसे अधिक बहस वाला मुद्दा हमारे धर्मग्रंथ बने हुए हैं। इनके पक्ष और विपक्ष में हमेशा तर्कों का खेल चलता रहता है। ताज्जुब तो इस बात का है कि न तो किसी के तर्क काटने योग्य होते , और न ही सहज विश्वास करने योग्य , क्यूंकि जो आस्तिक है , उनकी आस्था धर्म पर हद से अधिक है , तो जो नास्तिक है उनकी आस्था विज्ञान पर हद से अधिक। मेरे हिसाब से धर्म और विज्ञान में जो आधारभूत अंतर है , वो अंतर हमारी संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति में भी है , वह यह कि वह यह कि धर्म की दिलचस्पी प्रकृति के नियमों को स्वीकार करते हुए , उसकी रक्षा करते हुए उसके सापेक्ष जीवन जीने की खोज में होता है , जबकि विज्ञान हमेशा प्रकृति को पराजित कर लेने का दावा करता है।
इस विकासशील युग में धर्म पर आश्रित रहकर जीवनयापन करना मुश्किल है , और हम विज्ञान का सहारा लेने को बाध्य हैं , पर प्रकृति के सहारे जीने की बाध्यता तो आदिम काल से चलती आ रही है और लाख वैज्ञानिक विकास के बावजूद भी समाप्त नहीं हो सकती , इसलिए प्रकृति पर विजय पाने का दावा भी बेकार है। । इसके अलावे विज्ञान के अंधाधुंध और बिना सोंचे समझे किए गए विकास के कारण उत्पन्न संकट भय जरूर उपस्थित करता है और हम यह सोंचने को बाध्य हो जाते हैं कि इससे अच्छी तो हमारी परंपरागत जीवनशैली थी , जिसमें प्रकृति और मानव धर्म दोनो सुरक्षित था। पर भारतवर्ष का सनातन धर्म , जो न तो हिंदू , न मुस्लिम , न सिक्ख और न ईसाई है , में हमेशा स्वतंत्र चिंतन और मनन को स्थान दिया है। तभी इसमें धर्म का क्षेत्र भी हमेशा परिष्कृत होता रहा , इतने धर्मगुरू हुए , सभी ने समाज के हिसाब से मानव धर्म की अपनी अपनी परिभाषाएं रची।
पर जहां आज एक ओर धर्मगुरू सही मार्ग दिखाने में असमर्थ हैं , वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिक भी लोगों को एक सही दिशा नहीं दे पा रहें। हमारा मौलिक चिंतन समाप्त हो गया है और हम उसे ही सत्य समझ बैठते हैं , जो पाश्चात्य वैज्ञानिक कहते हैं , जबकि उनका चिंतन न कभी विराट हुआ है और न होगा। पढे लिखे भारतीय उनके विकास को देखकर और अपने को खुद उसी दिशा में जाते देखकर विकास का झूठा भ्रम पाल रहे हैं। यही कारण है कि प्रकृति जोर शोर से उपद्रव मचा रही है और आनेवाले वर्षों में इसके विनाश का विकट स्वरूप हमें देखना होगा। मेरा यह नहीं मानना है कि जो धर्मग्रंथों में लिखा है , आज के संदर्भ में उसकी एक एक पंक्तियां सही है , हमने अपने धर्म के अनुसार ही स्वतंत्र चिंतन और मनन को स्थान देते हुए उनमें से समय के साथ अच्छी बातों को चुनचुनकर ग्रहण किया है और बुरी बातों को अस्वीकार करते आए हैं। महाकवि कालिदास ने भी कहा था .....
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि नवमित्यवद्यम् |
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ||
न तो पुराना ही पुराना होने के कारण सही है , और न नया ही नया होने के कारण ग्राह्य , साधु बुद्धि के लोग दोनो की परीक्षा करके ही स्वीकार या अस्वीकार किया करते हैं। उलूल जुलूल तर्क देकर पुरानी हर बात को ही अच्छा मान लेना या नई हर बात को ही बुरा मान लेना उचित नहीं। धर्म के अनुसार गंगा को मां मानकर उसकी सुरक्षा करें या फिर विज्ञज्ञन के हिसाब से पर्यावरण की दृष्टि से , पर सुरक्षा के उपाय किए जाने चाहिए । यदि हम इस दृष्टिकोण को लेकर चलें , तो धर्म और विज्ञान में टकराव की कोई बात नहीं होगी। धर्म का असली लक्ष्य मानव धर्म की रक्षा होनी चाहिए , इस कारण समय समय पर इसका परिवर्तनशील होना आवश्यक है , धर्मगुरूओं को इस दिशा में सोचने की आवश्यकता है , न कि लकीर के फकीर बने रहने की।