सरस्वती पूजा को लेकर सबसे पहली याद मेरी तब की है , जब मैं मुश्किल से पांच या छह वर्ष की रही होऊंगी और सरस्वती पूजा के उपलक्ष्य में शाम को स्टेज में हो रहे कार्यक्रम में बोलने के लिए मुझे यह कविता रटायी गयी थी ...
शाला से जब शीला आयी ,
पूछा मां से कहां मिठाई ।
मां धोती थी कपडे मैले ,
बोली आले में है ले ले।
मन की आशा मीठी थी ,
पर आले में केवल चींटी थी।
खूब मचाया उसने हल्ला ,
चींटी ने खाया रसगुल्ला।
गांव में रहने के कारण अपनी पढाई न पूरी कर पाने का मलाल दादाजी को इतना रहा कि उन्होने पांचों बेटों को अधिक से अधिक पढाने की पूरी कोशिश की। एक मामूली खेतिहर और छोटा मोटा व्यवसाय करनेवाले मेरे दादाजी अपने पांचो बेटे को कक्षा में टॉपर पाकर और उनके ग्रेज्युएट हो जाने मात्र से ही काफी खुश रहते और मानते कि हमारे परिवार पर मां सरस्वती की विशेष कृपा है , इसलिए अच्छा खासा खर्च कर अपने घर पर ही वसंत पंचमी के दिन सरस्वती जी की विशेष पूजा करवाया करते थे। सुबह पूजा होने के बाद शाम को लोगों की भीड जुटाने के लिए एक माइक और लाउस्पीकर आ जाता , वहां के सांस्कृतिक कार्यक्रम में हमारे परिवार के लोगों का तो शरीक रहना आवश्यक होता। घर के छोटे बच्चे भी स्टेज पर जाकर अपना नाम ही जोर से चिल्लाकर बोल आते।
थोडी बडी होने पर स्कूल में भी हमारा उपस्थित रहना आवश्यक होता , चूंकि स्कूलों के कार्यक्रम में थोडी देरी हो जाया करती थी , इसलिए हमारे घर की पूजा सुबह सवेरे ही हो जाती और माता सरस्वती को पुष्पांजलि देने के बाद ही हमलोग तब स्कूल पहुंचते , जब वहां का कार्यक्रम शुरू हो जाता था। सभी शिक्षकों को मालूम था कि हमारे घर में भी पूजा होती है , इसलिए हमें कभी भी देर से पहुंचने को लेकर डांट नहीं पडी। बचपन से ही हम भूखे प्यासे स्कूल जाते और स्कूल की पूजा के बाद ही प्रसाद खाते हुए सारा गांव घूमते , प्रत्येक गली में एक सरस्वती जी की स्थापना होती थी , हमलोग किसी भी मूर्ति के दर्शन किए बिना नहीं रह सकते थे।
ऊंची कक्षाओं के बच्चों को स्कूल के सरस्वती पूजा की सारी व्यवस्था खुद करनी होती थी , इस तरह वे एक कार्यक्रम का संचालन भी सीख लेते थे। चंदा एकत्रित करने से लेकर सारा बाजार और अन्य कार्यक्रम उन्हीं के जिम्मे होता। सहशिक्षा वाले स्कूल में पढ रही हम छात्राओं को सरस्वती पूजा के कार्यक्रम में चंदा इकट्ठा करने और पंडाल की सजावट के लिए घर से साडियां लाने से अधिक काम नहीं मिलता था , इसलिए सबका खाली दिमाग अपने पहनावे की तैयारी करता मिलता।
तब लहंगे का फैशन तो था नहीं , बहुत कम उम्र से ही सरस्वती पूजा में हम सभी छात्राएं साडी पहनने के लिए परेशान रहते। आज की तरह तब महिलाओं के पास भी साडियों के ढेर नहीं हुआ करते थे , इसलिए अच्छी साडियां देने को किसी की मम्मी या चाची तैयार नहीं होती और पूजा के मौके पर साधारण साडियां पहनना हम पसंद नहीं करते थे। साडियों के लिए तो हमें जो मशक्कत करनी पडती , उससे कम ब्लाउज के लिए नहीं करनी पडती। किसी भी छात्रा को अपनी मम्मी और चाचियों का ब्लाउज नहीं आ सकता था, ब्लाउज के लिए हम पूरे गांव में दुबली पतली नई ब्याहता भाभियों को ढूंढते। तब रंगो के इतने शेड तो होते नहीं थे , हमारी साडी के रंग का ब्लाउज कहीं न कहीं मिल ही जाता , तो हमें चैन आता।
हमारे गांव में वसंतपंचमी के दूसरे दिन से ही मेला भी लगता है , हमारे घर में तो सबका संबंध शुरू से शहरों से रा है , इसलिए मेले को लेकर बडों को कभी उत्साह नहीं रहा , पर दूर दराज से पूरे गांव में सबके घर मेहमान मेला देखने के लिए पहुंच जाते हैं। अनजान लोगों से भरे भीड वाले वातावरण में हमलोगों को लेकर अभिभावक कुछ सशंकित भी रहते , पर एक सप्ताह तक हमलोगों का उत्साह बना रहता। ग्रुप बनाकर ही सही , पर मेले में आए सर्कस से लेकर झूलों तक और मिठाइयों से लेकर चाट पकौडों तक का आनंद हमलोग अवश्य लेते।
वर्ष 1982 में के बी वूमेन्स कॉलेज , हजारीबाग में ग्रेज्युएशन करते हुए चतुर्थ वर्ष में पहली बार सरस्वती पूजा के आयोजन का भार हमारे कंधे पर पडा था। इस जिम्मेदारी को पाकर हम दस बीस लडकियां अचानक बडे हो गए थे और पंद्रह दिनों तक काफी तैयारी के बाद हमलोगों ने सरस्वती पूजा के कार्यक्रम को बहुत अच्छे ढंग से संपन्न किया था। वो उत्साह भी आजतक नहीं भूला जाता। आज तो बस पुरानी यादें ही साथ हैं , सबों को सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !!
शाला से जब शीला आयी ,
पूछा मां से कहां मिठाई ।
मां धोती थी कपडे मैले ,
बोली आले में है ले ले।
मन की आशा मीठी थी ,
पर आले में केवल चींटी थी।
खूब मचाया उसने हल्ला ,
चींटी ने खाया रसगुल्ला।
गांव में रहने के कारण अपनी पढाई न पूरी कर पाने का मलाल दादाजी को इतना रहा कि उन्होने पांचों बेटों को अधिक से अधिक पढाने की पूरी कोशिश की। एक मामूली खेतिहर और छोटा मोटा व्यवसाय करनेवाले मेरे दादाजी अपने पांचो बेटे को कक्षा में टॉपर पाकर और उनके ग्रेज्युएट हो जाने मात्र से ही काफी खुश रहते और मानते कि हमारे परिवार पर मां सरस्वती की विशेष कृपा है , इसलिए अच्छा खासा खर्च कर अपने घर पर ही वसंत पंचमी के दिन सरस्वती जी की विशेष पूजा करवाया करते थे। सुबह पूजा होने के बाद शाम को लोगों की भीड जुटाने के लिए एक माइक और लाउस्पीकर आ जाता , वहां के सांस्कृतिक कार्यक्रम में हमारे परिवार के लोगों का तो शरीक रहना आवश्यक होता। घर के छोटे बच्चे भी स्टेज पर जाकर अपना नाम ही जोर से चिल्लाकर बोल आते।
थोडी बडी होने पर स्कूल में भी हमारा उपस्थित रहना आवश्यक होता , चूंकि स्कूलों के कार्यक्रम में थोडी देरी हो जाया करती थी , इसलिए हमारे घर की पूजा सुबह सवेरे ही हो जाती और माता सरस्वती को पुष्पांजलि देने के बाद ही हमलोग तब स्कूल पहुंचते , जब वहां का कार्यक्रम शुरू हो जाता था। सभी शिक्षकों को मालूम था कि हमारे घर में भी पूजा होती है , इसलिए हमें कभी भी देर से पहुंचने को लेकर डांट नहीं पडी। बचपन से ही हम भूखे प्यासे स्कूल जाते और स्कूल की पूजा के बाद ही प्रसाद खाते हुए सारा गांव घूमते , प्रत्येक गली में एक सरस्वती जी की स्थापना होती थी , हमलोग किसी भी मूर्ति के दर्शन किए बिना नहीं रह सकते थे।
ऊंची कक्षाओं के बच्चों को स्कूल के सरस्वती पूजा की सारी व्यवस्था खुद करनी होती थी , इस तरह वे एक कार्यक्रम का संचालन भी सीख लेते थे। चंदा एकत्रित करने से लेकर सारा बाजार और अन्य कार्यक्रम उन्हीं के जिम्मे होता। सहशिक्षा वाले स्कूल में पढ रही हम छात्राओं को सरस्वती पूजा के कार्यक्रम में चंदा इकट्ठा करने और पंडाल की सजावट के लिए घर से साडियां लाने से अधिक काम नहीं मिलता था , इसलिए सबका खाली दिमाग अपने पहनावे की तैयारी करता मिलता।
तब लहंगे का फैशन तो था नहीं , बहुत कम उम्र से ही सरस्वती पूजा में हम सभी छात्राएं साडी पहनने के लिए परेशान रहते। आज की तरह तब महिलाओं के पास भी साडियों के ढेर नहीं हुआ करते थे , इसलिए अच्छी साडियां देने को किसी की मम्मी या चाची तैयार नहीं होती और पूजा के मौके पर साधारण साडियां पहनना हम पसंद नहीं करते थे। साडियों के लिए तो हमें जो मशक्कत करनी पडती , उससे कम ब्लाउज के लिए नहीं करनी पडती। किसी भी छात्रा को अपनी मम्मी और चाचियों का ब्लाउज नहीं आ सकता था, ब्लाउज के लिए हम पूरे गांव में दुबली पतली नई ब्याहता भाभियों को ढूंढते। तब रंगो के इतने शेड तो होते नहीं थे , हमारी साडी के रंग का ब्लाउज कहीं न कहीं मिल ही जाता , तो हमें चैन आता।
हमारे गांव में वसंतपंचमी के दूसरे दिन से ही मेला भी लगता है , हमारे घर में तो सबका संबंध शुरू से शहरों से रा है , इसलिए मेले को लेकर बडों को कभी उत्साह नहीं रहा , पर दूर दराज से पूरे गांव में सबके घर मेहमान मेला देखने के लिए पहुंच जाते हैं। अनजान लोगों से भरे भीड वाले वातावरण में हमलोगों को लेकर अभिभावक कुछ सशंकित भी रहते , पर एक सप्ताह तक हमलोगों का उत्साह बना रहता। ग्रुप बनाकर ही सही , पर मेले में आए सर्कस से लेकर झूलों तक और मिठाइयों से लेकर चाट पकौडों तक का आनंद हमलोग अवश्य लेते।
वर्ष 1982 में के बी वूमेन्स कॉलेज , हजारीबाग में ग्रेज्युएशन करते हुए चतुर्थ वर्ष में पहली बार सरस्वती पूजा के आयोजन का भार हमारे कंधे पर पडा था। इस जिम्मेदारी को पाकर हम दस बीस लडकियां अचानक बडे हो गए थे और पंद्रह दिनों तक काफी तैयारी के बाद हमलोगों ने सरस्वती पूजा के कार्यक्रम को बहुत अच्छे ढंग से संपन्न किया था। वो उत्साह भी आजतक नहीं भूला जाता। आज तो बस पुरानी यादें ही साथ हैं , सबों को सरस्वती पूजा की शुभकामनाएं !!