विश्व में कोरोना वायरस प्राकृतिक आपदा बनकर आयी हो या ये मानवकृत आपदा हो, पूरा विश्व इसके विभीषिका से त्रस्त है। उच्च-मध्यम-निम्न वर्ग, धर्म और जाति-पाति नहीं देख रहा यह वायरस। कोई बीमार पड़ रहे हैं तो कोई मृत्यु का वरण भी, धन या पद की कोई मजबूती काम नहीं आ रही है। निम्नस्तरीय लोगों को अभी सरकारी मदद, समाजसेवी संस्थाओं की मदद मिल रही है, माहौल ठीक होने पर उन्हें बड़ा-छोटा काम भी मिल जायेगा। उच्चवर्गीय परिवार कोरोना के बाद के समाज की मांग के अनुरूप पूंजी के अनुरूप अपने रोजगार को बदल देंगे। गांव-शहर में बसे मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों को दो-तीन महीने घर में बैठकर या जरूरी काम करते हुए काटने में भी कोई दिक्कत नहीं, पर उनकी भविष्य की सम्भावनाएँ अनिश्चित लगती हैं।
सरकारी नौकरी कर रहे लोगों पर करियर और रोजी-रोटी की अनिश्चितता नहीं, पर इतने बड़े देश में आयी चुनौतियों को संभालने के क्रम में सरकारी दवाब का सामना तो करना ही पड़ रहा है। पर प्राइवेट नौकरी कर रहे घर-परिवार से अलग रह रहे युवाओं की चिंता भी कम नहीं, जिन्हे अपने नियोक्ताओं के लाभ की भी चिंता करनी है, कंपनी में बने रहने के लिए ऊपर आनेवाले हर आदेश का पालन कर खुद मेहनत करनी है, घर में सहायिकाओं के अभाव में खाने-पीने, साफ़-सफाई का ध्यान भी रखना है। इसके बाद भी यह तनाव बना ही हुआ है कि किसकी नौकरी बचेगी और किसकी नौकरी जाएगी ?
पूरे भारतवर्ष से दो तरह की खबरें रही है -- जहाँ किसी प्रदेश, किसी शहर और किसी गाँव से अच्छी व्यवस्था की, मतलब प्रशासन द्वारा खाने-पीने की व्यवस्था की गयी है. जरूरतभर अनाज बांटे गए हैं, पुलिस चुस्त बनी हुई है, लोगों को जमा होने नहीं दिया जा रहा है, सेनिटाइज़ेशन किया जा रहा है तो वहीं किसी प्रदेश, किसी शहर और किसी गाँव से बुरी व्यवस्था की खबर भी, लोग खाने-खाने को मुंहताज हैं, अनाज किसी को मिला किसी को नहीं, पुलिस आराम कर रही है, लोग जमा हो रहे हैं, सैनिटीजसन की तो कुछ चर्चा नहीं है।
इससे एक निष्कर्ष तो निकलता है, अच्छी व्यवस्था करने वाला पूरा प्रदेश, शहर या गाँव केंद्र द्वारा दी गयी जिम्मेदारियाँ ले रहा है, जनता को भेजी गयी सुविधाओं को देने में पैसे खर्च कर रहा है, बुरी व्यवस्था करनेवाला प्रदेश, शहर या गाँव केंद्र द्वारा दी गयी जिम्मेदारियाँ नहीं ले रहा है, जनता को भेजी गयी सुविधाओं को न बाँटकर पैसे बचा रहा है। बेईमानी के फल को भोगते हुए हमारे पूर्वजों ने देखा था, इसलिए हमेशा बच्चों को ईमानदारी की शिक्षा दिया करते थे।
यह बात अलग है कि बाद में हमारे पाठ्यक्रम से नैतिक शिक्षा का विषय ही गायब कर दिया गया। कोरोना के इस भयंकर दौर में यदि कोई पैसे बचाकर ऊपर से नीचे तक इसे बाँटने जैसा भ्रष्टाचार करके यह सोच रहे हैं कि जनता की आह उन्हें नहीं लगेगी तो गलत सोच रहे, जनता की आह सबसे भारी होती है। इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि देश मे स्वार्थियों की कमी नहीं है। नैतिक शिक्षा की बात भूल गए हो। बड़े बुजुर्गों द्वारा दीं गयी शिक्षा भूल गए हो पर आज प्रकृति की ताकत को तो पहचानो। आपत्तिकाल मे दूसरे के हिस्से के पैसे मत रखो नादानो !
जिस देश के गरीबों को आनेवाले समय मे खाने पीने, जरूरी व्यवस्था मे ही दिक्कत है, सफाई के लिए साबुन और सेनेटाइजर कहाँ से खरीद पाएंगे ? वैज्ञानिकों को कोरोना वायरस पर गाय के गोबर, मूत्र और लकड़ी की राख़ का भी प्रयोग टेस्ट करना चाहिए. पिछली कई महामारियों मे, जब सर्फ़ सैनिटाइज़र का बनना शुरू भी नहीं हुआ था, यह रामबाण साबित हुआ था. प्लेग के बारे मे प्रसिद्द है कि जिनके घर मे गायें थी, उस के घर मे प्लेग नहीं फैला था. गावों मे अभी भी गोबर से घर आँगन लीपे और राख़ का उपयोग हाथ धोने और बर्तन मांजने मे किया जाता है. उम्मीद है, सरकार इसपर ध्यान देगी।