वैवाहिक मामलों के कई प्रकार के प्रश्न जैसे जन्मपत्री मिलान, विवाह की रीति , सात फेरे, विवाह में गोत्र का महत्व आदि हमारे मस्तिष्क में घूमते रहते हैं , जिनका सटीक जबाब हमारे पास नहीं होता। ऐसे ही कुछ प्रश्न 'अखिल भारतीय खत्री महासभा' द्वारा पूछे गए थे , जिनका मेरे पिताजी श्री विद्या सागर महथा जी के द्वारा दिया गया निम्न प्रकार जबाब मुझे एक पत्रिका मे मिला, जो आपके लिए पोस्ट कर रही हूं ...........
प्रश्न .. जन्मपत्र मिलाने की प्रथा कब से चली ?
उत्तर .. वैदिक काल , श्री रामचंद्र जी के समय, महाभारत काल और प्राक् ऐतिहासिक काल में भी स्वयंवर ही हुआ करते थे, किंतु इतना निश्चित है कि स्वयंवर काल में वर और कन्या निश्चित तौर पर बालिग और समझदार हुआ करते थे। विवाह सुनिश्चित करने में परिवार के सदस्यों की तुलना में उनकी भूमिका निर्णायक हुआ करती थी। किंतु हजार दो हजार वर्षों में भारत में अनेक बार विदेशी हमले हुए , फलस्वरूप सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियां बहुत अधिक प्रभावित हुईं। कई बार प्रतिष्ठा की रक्षा के क्रम में बाल विवाह का सिलसिला चला और संभवत: इन्हीं दिनों पात्र पात्राओं की चारित्रिक विशेषताओं की जानकारी हेतु कुंडली निर्माण की प्रथा चल पडी। जन्मपत्र मिलाने की प्रथा कब से चली , इसकी निश्चित तिथि का उल्लेख करना कठिन है।
प्रश्न .. जब हम जानते हैं कि जोडे ऊपर से ही बनकर आए हैं , तो फिर पत्री मिलाने के क्या लाभ हैं ?
उत्तर .. जन्मपत्री मिलाना , जो परंपरावश जारी है , मुझे बहुत वैाानिक नहीं लगती। इस कारण यह है कि सभी अन्य ग्रहों को नजरअंदाज करके सिर्फ चंद्रमा के नक्षत्र के आधार पर गुण का मिलान किया जाता है। किंतु सभी ग्रहों पर सयक् रूप से ध्यान दिया जाए , तो वर या कन्या की चारित्रिक विशेषताओं को जाना जा सकता है .. कुंडली मिलाने से यही लाभ है। जोडे ऊपर से बनकर आते हैं या नहीं , इसके बारे में भी प्रमाण तो नहीं दिया जा सकता। पर कुंडली मिलाने के बहाने दूरस्थ भविष्य की जानकारी होती है , हम जोडे का चयन कर सकते हैं , ऐसी बात नहीं है।
प्रश्न .. विवाह रात्रि में ही क्यूं होते हैं ? दिन में क्यूं नहीं किए जा सकते ?
उत्तर .. प्राय: हर युग में वरपक्ष अपने काफिले के साथ कन पक्ष के यहां जाता रहा है। वरपक्ष को सुबह से शाम तक कई प्रकार के लोकाचार को निबटाते हुए यातायात की सुविधा के अभाव में कन्या पक्ष के यहां देर से पहुंचते हैं। पुन: आर्य आतिथ्य सत्कार को सबसे बडा धर्म समझते रहे हैं , इस कारण देर होता जाना स्वाभाविक है। नक्षत्रों को साक्षी रखने के लिए भी विवाह प्राय: रात्रि में ही हुआ करता था। परिपाटी यही चलती आ रही है। पर साज सजावट में यह व्यय साध्य प्रतीत हो ख् तो विवाह दिन में भी किए जा सकते हैं।
प्रश्न.. गोत्र या अल्लों का क्या महत्व है ? एक ही गोत्र में विवाह क्यूं वर्जित है ?
उत्तर .. यूं तो पूरा भारतीय समाज पुरूष प्रधान है और हमारा खत्री समाज भी इससे भिन्न नहीं। जो समाज बहुत दिनों तक अपनी संस्कृति को ढोने की क्षमता रखता है , उसकी एक बडी विशेषता अपने पूर्वजों को याद रखने की होती है। सभी गोत्र का नामकरण ऋषियों के नाम पर आधृत हैं , इससे ये तो स्पष्ट है कि सभी गोत्र वाले अपने पूर्व पुरूषों में किसी अपने वंशज के ऋषि को याद करते हैं। उस महत्वपूर्ण व्यक्ति विशेष का जो अल्ल था , वही उस गोत्र का अल्ल कहलाता है। इसी प्रकार सभी व्यक्ति अपने गोत्र और अल्ल से लाभान्वित होते हैं। कालांतर में जब उसी गोत्र का कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति किसी खिताब से नवाजा जाता है , तो गोत्र के अंतर्गत ही कई अल्ल आ जाते हैं। कुछ अल्ल कर्मानुसार भी जुडते चले जाते हैं। कभी एक गोत्र और एक अल्ल से एक ही वंश का बोध होता था , इसलिए परस्पर विवाह वर्जित था। पर इस समय एक ही गोत्र और अल्ल में लोगों की संख्या लाखों में है। अत: प्रमुख रक्तधारा की बात काल्पनिक हो जाती है। भले ही यह समाज पुरूष प्रधान हो , पा व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए , तो अर्द्धांगिनी के रूप में भिन्न भिन्न वंशजों की नारियां इतनी ही संख्या में सम्मिलित होकर रक्त धारा , सभ्यता , संस्कृति सभी में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर डालती है। अत: एक ही गोत्र और अल्ल में विवाह में कोई दिक्कत नहीं, बशर्तें दोनो के पूर्वज परिचित न हों।
प्रश्न .. क्या विवाह वैदिक रीति से ही होना चाहिए या आर्यसमाज रीति से भी ठीक है ?
उत्तर .. विवाह की दोनो रीतियों को मैं मानता हूं , दोनो की अपनी अपनी विशेषताएं हैं।
प्रश्न .. क्या विवाह में चार फेरे भी मान्य हैं ?
उत्तर .. दिनों का नामकरण भी उस समय तक विदित प्रमुख सात आकाशीय ग्रहों के आधार पर हुआ है। सप्तर्षि मंडल में सात सुविख्यात ऋषियों को साक्षी रखकर ही या ब्रह्म की भांति दाम्पत्य जीवन में पूर्णता सात ग्रहों की परिकल्पना का अनुकरण संभावित है , अत: सात फेरों में कोई कटौती मुझे उचित नहीं लगती।