कल दिब्या जी ने एक पोस्ट लिखा था ... इतना मुश्किल भी नहीं आपको समझना --आप तो मेरी ही तरह भावुक हैं...न्यूमरोलोजी पर आधारित यह पोस्ट पाठको को आकर्षित करने में सक्षम रहा है , पर ऐसे पोस्ट परंपरावादियों और आधुनिक विचार वालों के मध्य वाद विवाद का केन्द्र बन ही जाते हैं। पर ज्योतिष , तंत्र मंत्र , परंपरा , ईश्वर , आदि मामलों में बहस का कभी निर्णय न अब तक निकला है और न ही निकलेगा। सामान्य परिस्थिति में किसी झंझट को सुलझा पाना कमजोर पक्ष के बूते की बात ही नहीं , मजबूत पक्ष ही झंझट को सुलझा सकता है , इसलिए झंझट नहीं सुलझा करता , क्यूंकि इसमें मजबूत पक्ष को घाटे की गुंजाइश रहती है। आधुनिक विज्ञान आज मजबूत स्थिति में है , जबतक सामाजिक , राजनीतिक स्थिति को क्षत विक्षत और हमारी जीवनशैली को पूरी तरह प्रदूषित न कर दे , न तो परंपरागत ज्ञान को स्वीकारेगा और न अपनी हार स्वीकार करेगा। पर परंपरागत ज्ञान का कोई आधार नहीं , ऐसा तो नहीं माना जा सकता , पर नए रिसर्च के अभाव और पुरानी पीढी के समाप्त होने से उसका बडा नुकसान तो हुआ है।
19 जन्म तारीख होने से मेरा भी मूलांक 1 ही है, यह संयोग भी हो सकता है कि वहां लिखी बातें मेरे व्यक्त्वि से मिलती है, पर ज्योतिष में रिसर्च के बाद निष्कर्ष इतने सूक्ष्म आने लगे कि मुझे न्यूमरोलोजी बहुत स्थूल लगने लगा है। वैसे महत्वाकांक्षा का भी डिविजन होना चाहिए , पैसे कमाने की, राज करने की , ज्ञानार्जन करने की, दुनिया के जीवनशैली को बदलने की .. महत्वाकांक्षा तो हर प्रकार की हो सकती है। इसकी जानकारी भी तो आवश्यक है , जैसे कि मेरे बारे में जिद्दी लिखा गया, मैं ज्योतिष के नियमो की पूरी जांच पडताल के बाद ही एक कदम आगे बढती हूं , पर भविष्यवाणी करने के लिए लिए गए अपने सिद्धांतों पर अटल रहती हूं, भले ही रिजल्ट में एक दो जगह खामी आ जाए। अभी पृथ्वी के प्रक्षेपण में ही तकनीकी गडबडी आ गयी , इतने विकसित विज्ञान मे सिद्धहस्त पूरी टीम के द्वारा गल्ती हो सकती है , तो हमारे व्यक्तिगत ज्ञान को अपवाद का मौका मिलना ही चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मुझे अन्य किसी भी जगह काम्प्रोमाइज करने में कठिनाई होती है !!
कालिदास ने कहा था ....
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि नवमित्यवद्यम् |
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ||
अर्थात न पुरानी होने से सबकुछ बुरा है .. न नया होने से सबकुछ अच्छा .. बुद्धिहीन दूसरों की बुद्धि से चलते हैं .. जबकि बुद्धिमान परीक्षा करते हुए।
मेरा यह मानना है कि जबतक दुनिया में दो प्रकार के लोग बने रहेंगे .. यानि एक नए को ही अच्छा कहता रहे और एक पुराने को ही .. दोनो बुद्धिहीन की श्रेणी में दुनिया की खुशहाली ढूंढने में असमर्थ रहेंगे .. क्यूंकि बुद्धिमान दोनो के मध्य का रास्ता निकालने की कोशिश करता है .. ताकि संसार का कल्याण किया जा सके!!
इसी पोस्ट में एक टिप्पणी में डॉ रूपेश श्रीवास्तव जी भी सही कह रहे हैं सत्य वही होता है जिसे हम मानते हैं जिसे मानते ही नहीं वह सत्य कैसे हो सकता है कई जटिल बीमारियों के इलाज नहीं होने के बावजजूद भी डॉक्टर का ज्ञान सत्य है .. क्यूंकि इसकी पढाई के लिए टैलेंट के बल पर किसी का दाखिला होता है .. सरकार द्वारा उसके पीछे लाखों करोडों खर्च होता है .. दुनिया भर के रिसर्च होते हैं .. सरकारी तनख्वाह के भरोसे या लोगों के विश्वास के भरोसे जीवनभर एक डॉक्टर के सामाजिक स्टेटस के बढते जाने की उम्मीद है .. पर परंपरागत विज्ञान और उनके नियमों को एक सिरे से नकार दिया गया है .. उनके विकास के लिए न तो प्रतिभा और न ही खर्च हो रहा है उस ओर .. जिसका जीवन सामान्य तौर पर चलता रहता है उसके लिए तो प्राकृतिक नियम एक पहेली ही हैं .. पर जिनके जीवन में गंभीर विपत्ति आती है .. वे इसा कोई कारण नहीं ढूंढ पाते .. लोग दौडेंगे ही नीम हकीम खतरे जान ज्योतिषियों के पास .. जबतक विज्ञान उस ज्ञान तक पहुंचेगा कि ग्रहों या अन्य प्राकृतिक नियमों का प्रभाव हमपर पडता है .. और जबतक ग्रहों के पृथ्वी के जड चेतन पर पडनेवाले सही स्वरूप की विवेचना नहीं होगी .. तबतक दुनियाभर में अंधविश्वास फैलने से रोका ही नहीं जा सकता !!