लक्ष्मी और सरस्वती में श्रेष्ठ कौन है
प्राचीन कहावत है कि लक्ष्मी और सरस्वती एक स्थान पर नहीं रह सकती, यानि कि एक ही व्यक्ति का ध्यान कला और ज्ञान के साथ साथ भौतिक तत्वों की ओर नहीं जा सकता , इसलिए प्राचीन काल में पैसे से किसी का स्तर नहीं देखा जाता था, बल्कि भौतिक सुखों का नकारकर किसी प्रकार की साधना करने वालों को , ज्ञान प्राप्त करने वालों को धनवानों से ऊंचा स्थान प्राप्त होता था। यहां तक कि उस वक्त राजा भी ऋषि महर्षियों के पांव पखारा करते थे और अपने पुत्रों को ज्ञान प्राप्ति के लिए उनके पास भेजा करते थे। उच्च पद में रहनेवाले लोगों की संताने हर प्रकार के ज्ञान के साथ साथ नैतिक और आध्यात्मिक ज्ञान भी अर्जित करते थे। पर क्रमश: भौतिकवादी युग के विकास के साथ ही संपन्न लोग कला और साधना में रत लोगों का शोषण करने लगे ।
आज पूर्ण रूप से जड जमा चुके भौतिकवादी युग में बिना डिग्री के या बिना व्यवसायिक बुद्धि के कला और ज्ञान की साधना का कोई मूल्य नहीं , सच्चे साधक तो कहीं छुपे पडे होते हैं , व्यावसायिक तौर पर सफल ज्ञानी और धनवान के मध्य अपने को महत्वपूर्ण समझने की प्रतिस्पर्धा है। हमारे परिचय के एक व्यक्ति ने बोकारो में एक बडा नर्सिंग होम खोला था , इसी शहर के एक ख्यातिप्राप्त सर्जन उनके यहां काम करने के इच्छुक थे। नर्सिंग होम के संचालक की भी इच्छा थी कि वे उनके यहां काम करे। चूंकि दोनो ही मेरे परिचित थे , मैने दोनो से बातचीत भी की और उन्हें एक दूसरे का फोन नं भी दिया। पर पहल कौन करे , लक्ष्मी और सरस्वती में ऐसी टकराहट हो गयी थी कि दोनो 'पहले आप' 'पहले आप' कहते रह गए।
ऊपर के उदाहरण में सरस्वती ने लक्ष्मी से टक्कर लेने की हिम्मत इसलिए की , क्यूंकि उनके पास डिग्री है। आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों के या व्यावसायिक बुद्धि रखनेवाले कुछ कलाकार भी समृद्ध लोगों से टक्कर ले सकते हैं , पर बाकी कलाकारों को तो धनवानों की कृपादृष्टि पर बने रहने को बाध्य होना पडता है। उन कलाकारो , अन्य प्रकार के साधकों और ज्ञानियों की सामाजिक प्रतिष्ठा का अभी तक लगातार ह्रास होता जा रहा है , जो समाज के लिए बहुत लाभदायक हो सकते थे। अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उन्हें साधना में कमी कर अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए अलग काम करने को बाध्य होना पडता है।
आज के व्यावसायिक युग में सांसारिक सफलता प्राप्त करनेवालों का गुमान देखते ही बनता है , कलाकारो , बुद्धिजीवियों का उनके लिए कोई महत्व नहीं होता। सांसारिक सफलताओं की अनदेखी कर जो व्यक्ति साधना के क्षेत्र में रह जाते हैं , उनकी मानसिकता एक गुलाम की हो जाती है। जो अपने परिवार की जबाबदेहियों को हल करने में असमर्थ हों , उसका आत्मविश्वास समाज का कल्याण करने में नहीं हो पता। इसके परिणामरूवरूप उन नीम हकीम खतरे जान कलाकारों और दिखावटी गुरूओं की बन आती है , जो व्यावसायिक बुद्धि रखते हैं और अपने दिखावटीपन से समाज को लूटने में कामयाब तो होते ही हैं , धर्म , ज्ञान और साधना के प्रति समाज के विश्वास तो तोडने में भी सक्षम होते हैं। ऐसे लोग समाज के विश्वास का तबतक लगातार फायदा उठाते हैं , जबतक समाज का एक एक वर्ग उनके चंगुल में न फंस जाए।
आज जिसके पास लक्ष्मी नहीं , वह ज्ञानार्जन तक के योग्य ही नहीं। और जिसने ज्ञानार्जन नहीं किया , वह मेहनत मजदूरी करने को बाध्य है। सारे कोर्स प्रोफेशनल हो गए हैं , जिन्हें पढने के लिए पैसे चाहिए और ज्ञानार्जन के बाद पैसों का ढेर लग सकता है। आज की सरस्वती बिना लक्ष्मी के नहीं रह सकती , इसलिए तो गुण और ज्ञान प्राप्त करनेवाले भी गुणहीन और ज्ञानहीन हैं। लाखों में पढाई कर करोडों में कमाई करनेवाले व्यक्ति से उनकी खुद की और उनके कंपनी के विकास की उम्मीद रखी जा सकती है , पर समाज या देश की नहीं। और जो अपने ज्ञान के बल बूते देश का कल्याण कर सकते हैं , वे कोने में पडे कराह रहे होते हैं।