दो महीने हिंदी ब्लॉग जगत से दूर रहने के बाद आज आपलोगों से मुखातिब होने का मौका मिला है। इस दौरान सारे ब्लॉगों पर मेरा क्रियाकलाप बंद ही रहा। समाचार के माध्यम से देश दुनिया की हर खबर तो मिलती रही , पर अपने ब्लॉग के माध्यम से न तो जापान में सुनामी के रूप में आए आए भीषण त्रासदी से परेशान लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त कर सकी , न ही भारत के वर्ल्ड कप जीतने पर कोई खुशी जाहिर कर सकी और न ही भ्रष्टाचार के विरूद्ध अन्ना हजारे के आंदोलन में उनका साथ दे सकी। इस मध्य कितने ही त्यौहार आते और जाते रहें , न तो आप सबों के साथ होली का लुत्फ उठा सकी , न रामनवमी की यादें ही शेयर कर सकी। ध्यान था तो सिर्फ इस बात पर कि शिफ्ट करने से पहले अपने क्वार्टर को मनमुताबिक ढाल देना ताकि बाद में हर कार्य सुविधापूर्ण ढंग से हो सके और बाद में किसी भी परिस्थिति में मेरे अध्ययन मनन में कोई रूकावट न आए।
आनेवाले आठ वर्ष तक की सुख सुविधा के लिए हमलोगों ने बिना कंपनी के सहयोग के क्वार्टर पर अच्छा खासा खर्च कर डाला। राजमिस्त्री , डिस्टेंपर पेण्ट वाले मिस्त्री , पाइपलाइन मिस्त्री और बिजली मिस्त्री सारे मिलकर 80 प्रतिशत काम पूरा कर चुके , 20 प्रतिशत बाकी है , जो धीरे धीरे हो जाएगा। कल से यहां कंप्यूटर भी इंस्टॉल हो चुका , ब्राडबैंड को यूजरनेम और पासवर्ड तो बहुत पहले ही मिल गया था। वैसे तो कैफे में जाकर कभी कभी हिंदी ब्लॉग जगत के हाल चाल लेती ही रही , पर नेट चलाने के बाद कल से ब्लॉग जगत में भ्रमण कुछ अधिक ही हो रहा है और आज मैं अपने पहले पोस्ट के साथ उपस्थित हूं। हालांकि घर अभी पूरा अस्त व्यस्त है , 28 को दिल्ली के लिए निकलना भी है , इसलिए समय की अभी भी काफी कमी दिख रही है।
हाई कोर्ट , रांची के आदेश के पश्चात् एक महीने तक लगातार होने वाले अतिक्रमण के विरूद्ध क्रिए जा रहे सरकारी कार्रवाई की आग में पूरा झारखंड जल रहा है। राजपथ को चौडा करने के लिए सरकारी जमीनों पर बनाए गए मकानों को तोडने का जो सिलसिला शुरू हुआ , वो बढता हुआ पूरे पूरे मुहल्ले और गांव तक को लीलता नजर आया। सरकारी जमीनों के बाद विभिनन कंपनियों के जमीनों में किए गए अतिक्रमण पर भी सरकार की निगाह है , जिसपर लोगों ने अपनी अपनी स्थिति के हिसाब से हर प्रकार के मकान बना लिए हैं। वर्षों से निवास कर रहे जनता की जो प्रतिक्रिया दिख रही है , वो स्वाभाविक है। आखिर वो जाएं तो जाएं कहां ?? करें तो करे क्या ??
बोकारो के कापरेटिव कॉलोनी , जहां मैं रहा करती थी , उसके बगल में झुग्गी झोपडियों की उससे भी बडी कॉलोनी थी। वहां रहनेवाले परिवारों के मर्द रिक्शा या ऑटो चलाते , चाट पकौडे के ठेले लगाते , या दूसरों की दुकानों में काम किया करते। महिलाएं पूरी कॉलोनी के फ्लैटों में चौका बरतन का काम करती थी। कुछ परिवार गाय या भैंस पालने का काम या छोटे मोटे व्यवसाय में भी लगे थे। सिर्फ महत्वाकांक्षी लोगों को ही नहीं , बंगाल या बिहार के विभिनन क्षेत्रों में भुखमरी से मर रहे लोगों को जीवन जीने के लिए एक जगह मिल गयी थी। अपनी सुविधा के लिए अपने अपने घरों में लोग कुछ न कुछ खर्च कर ही लिया करते थे। एक महीने पूर्व ही मेरी कामवाली ने आठ हजार रूपए खर्च कर नलकूप लगवाया था। उसके लिए आठ हजार रूपए उतने ही है , जितना किसी के लिए अस्सी हजार और किसी के लिए आठ लाख। किसी कारखाने के कारण कोई कॉलोनी बसती है , तो उन परिवारों के जीवनयापन में मदद करने के लिए बहुत सारे लोगों की आवश्यकता पडती है। वैसे लोगों का सहयोग तो सब लेते हैं , उनके रहने के लिए कंपनी कोई व्यवस्था नहीं करती।
हमारे बगल में ही सरकारी जमीन पर एक पूरा गांव ही बसा है , जिसमे छोटे मोटे मकान से लेकर आलीशान भवन भी मौजूद हैं। सबको नोटिस मिलने लगी है , यदि उसे तोडा गया तो अन्य शहरों जैसा ही पुरजोर विरोध किया जाएगा , इसमें संशय नहीं। आसपास कमाई के साधन को देखते हुए अच्छी अच्छी कॉलोनियां भी सरकारी या विभिनन कंपनियों की जमीन पर बनी हुई हैं। लोगों की मांग है कि जिस जमीन पर जो बसे हुए हैं , उन्हे तबतक नहीं उजाडा जाना चाहिए , जबतक सरकार या किसी कंपनी को उस जमीन की आवश्यकता नहीं है। यदि इसी तरह सारे मकानों को ध्वस्त करना था , तो उन्हें बनने के वकत ही रोका जाना चाहिए था। कुछ नेता भी अब इसका विरोध करने लगे हैं , अब सरकारी कार्रवाई रोकी भी जा सकती है , पर जिनका सबकुछ उजड गया , वे अपने दुभार्ग्य पर सर पीटने के सिवा और क्या कर सकते हैं ??