सूर्यादि ग्रहों तथा
अश्विन्यादि नक्षत्रों के गणित तथा फलित का वर्णन विवेचन करने वाले शास्त्र की
अभिद्दा ज्योतिष है। वेद के छठे अंग ( अनुक्रमत शिक्षा , कल्प , व्याकरण , तिरूक्त ,
छंद और ज्योतिष ) के रूप में ज्योतिष विद्या की प्राचीनता एवं
महत्व निर्विवाद है। वेदांगों के बिना वेदों का सम्यक अध्ययन तथा उनके द्वारा
अनुदेशित आचरणों के अनुरूप जीवनचर्या ढालकर ऊर्घ्वगामिता सिद्ध नहीं हो सकती।
वेदांगों में ज्योतिष को वेदों का साक्षात नेत्र (वेदस्य चक्षु o)
कहा गया है। हमारा जीवन श्रोताश्रित यानि
वंदाधारित हो अथवा स्मार्त्ताश्रित यानि परंपरावादी धर्मशास्त्रानुरूप
ज्योतिष विज्ञान दोनो का अधिष्ठान है। प्रारंभ में वैदिक कर्मकांड की तिथियों
तथा उससे संबंधित मांगलिक मुहूर्त्तों को जानने के लिए ज्योतिष विद्या का चिंतन
एवं आविर्भाव किया गया। पर कालक्रम से इसके आयाम उपवृंहित होकर भविष्य का
पूर्वज्ञान करने तथा जीवन जातक के भावी शुभाशुभ घटनाओं के पूर्व कथन करने तक विस्तीर्ण
हो गया। विष्णुधर्मोत्तरपुराण के एक श्लोक से सिद्ध होता है कि ज्योतिष विद्या
या ज्योतिर्विज्ञान का दूसरा नाम काल विधान शास्त्र भी है ..
वेदास्तु यज्ञार्थमभिप्रवृत्ता: कालानुपूर्वा विहिताश्र्च यज्ञा:।
तस्मादिदं कालविधान शास्त्र, यो ज्योतिषं वेद स वेद सर्वम् ।।
अर्थात् वेद तो
यज्ञों के अनुष्ठान के लिए प्रवृत्त हुए हैं और सभी यज्ञ कालानुपूर्व (
क्रमबद्ध रूप से निर्धारित यानि निर्णित काल से पहले ही बंधे हुए हैं )
हैं , इसलिए जो विद्वान कालविधानशास्त्र यानि ज्योतिष विद्या का ज्ञाता है वही
सर्वज्ञाता है ।
इससे यह भी सिद्ध
होता है कि ज्योतिर्विज्ञान के और चाहे जितने उद्देश्य हों , इसका मुख्य
प्रयोजन काल विधान ही है। इसके बिना षोडष संस्कार , तिथि , वार , योग , नक्षत्रों
की स्थिति इसके अनुरूप व्रत निर्देश , जातक एवं होरा विषयक मुहूर्त्तादि विचार
संभव ही नहीं है। समासत: सकल ज्ञान का आधार ज्योतिष विद्या ही है तथा यही इसका
मुख्य उद्देश्य भी है।
अर्थात यह ज्योतिष
शास्त्र वेदो का नेत्र है , अतएव उसकी प्रधानता अन्य वेदांगों के बीच स्वत:
प्रमाणित है , क्योंकि अन्य सभी अंगों से परिपूर्ण व्यक्ति नेत्रहीन होने से
नहीं के बराबर है।
वेदस्य चक्षु किल शास्त्रमेतत्प्रधानतांगेषु ततोर्थजाता।
अंगैर्युतोन्ये: परिपूर्णमूर्तिश्र्चक्षुर्विहीन: पुसषों न किंचित्।।
यह ज्योतिष शास्त्र
स्कंध त्रियात्मक है , इसका प्रथम स्कंध (
शाखा अथवा विभाग )
सिद्धांत स्कंध , दूसरा संहिता स्कंध और तीसरा होरा स्कंध कहा जाता है। त्रुटि ( समय
का अत्यंत सूक्ष्म भाग ) से लेकर प्रलय के अंत तक के काल और सूर्यादि
ग्रहों से संबंधित कालमान की गणना की गणित विद्या को सिद्धांत स्कंध कहते हैं।
सूर्यदि ग्रहों ,
विविध केतुओं , तारामंडलों , नक्षत्रों , ताराओं , तारामंडलों के स्थान , योग ,
उनकी गति संबंधी शुभाशुभ फलों के विचार , शास्त्र को संहिता स्कंध कहते हैं। तथा
ज्योतिष के जिस अंग के द्वारा जन्म , वर्ष , इष्ट काल पर ग्रहादि के प्रभाव ,
दृष्टि , बल , दशा एवं अंतर्दशादि की गणना और फलाफल का र्निणय किया जाता है , उसे
होरा स्कंध कहते हैं। होरा , जातक तथा हायन इसी के पर्यावाची नाम हैं। विद्वानों
के मतानुसार अहोरात्र शब्द के आदि और अंत के वर्णों का लोप होकर ही होरा शब्द
निर्मित हुआ है , जिसका अर्थ लग्न अथवा लग्नार्थ होता है , जिसके द्वारा जातक
अर्थात जन्म और नवजात शिशु संबंधी सभी घटना फलों का विचार किया जाता है।
‘चतुर्लक्षं च ज्योतिषं’
सूत्र के अनुसार मूल ज्योतिर्विज्ञान 400000 श्लोकों से समृद्ध है। नारदसंहिता ,
कश्यपसंहिता और पराशरसंहिता के साक्ष्य से इस विज्ञान के 18 प्रवर्तक माने जाते
हैं। यथा ब्रह्मा , सूर्य , वशिष्ठ , अवि , मनु , सोम या पौल्स्त्य , लोमश ,
मरीच , अंगिरा , व्यास , नारद , शौनक , भृगु , च्यवन , यवन , गर्ग , कश्यप तथा
पराशर । ( कुछ पश्चिम भक्त लेखकों ने यवनाचार्य को म्लेच्छ
के रूप में यूनानी लोमश को रोमश बताकर रोम का तथा पौल्स्त्य को एलेक्जेन्ड्रिया
का पॉल नाम से विदेशी निर्धारित करने की चेष्टा की है। दृष्टब्य अद्भुत भारत (
वंडर दैट वाज इंडिया ) लेखक ए एल बाशम पृष्ठ 492 )
उत्तर वैदिक काल के
ज्योतिषियों में आर्यभट्ट (पांचवी शताब्दी) , वराहमिहिर (छठी
शताब्दी) , लल्लू ब्रह्मगुप्त (सातवीं
शताब्दी) तथा भास्कराचार्य के नाम से प्रख्यात है। ज्ञातब्य
है कि पश्चिम जगत को ज्ञात होने से काफी पहले आर्यभट्ट ने यह सिद्धांत स्थापित
किया था कि सूर्य स्थिर है तथा पृथ्वी ही उसकी परिक्रमा करती है। यद्पि सिद्धांत
, संहिता और होरा स्कंध के अंतर्गत शतश: उपविषय सिन्नविष्ट है , पर स्थूल रूप
से इसके ही दो भाग प्रमुख हैं..
1. गणित तथा 2. फलित
, जो गिरा ( वाणी ) और अर्थ अथवा जल और वीचि यानि लहर के समान परस्पर
अभिन्न रूप से जुडे है , जिस प्रकार अर्थरहित शब्द बेकार होता है , उसी प्रकार
फलित पक्ष विहीन गणित ज्योतिष भी व्यर्थ होता है। तदापि इन दोनो में ज्योतिष
प्रधन्तर है , क्योंकि गणित के बिना फलित ज्योतिष किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच
सकता। वह सर्वथा परतंत्र और गणित ज्योतिष के अधीन है।
पूर्वोक्त प्राचीन
18 प्राचीन आचार्यों के सिद्धांतों में संप्रति जो सिद्धांत सर्वाधिक मान्य है ,
वह है सूर्य सिद्धांत। वैसे वराह मिहिर ने अपनी पुस्तक पंच सिद्धांतिका में पांच
, नृसिंह दैवज्ञ ने हिल्लाजदीपिका में छह , दैवज्ञ पुंजराज ने अपने ग्रंथ
शंभुहोरा प्रकाश में सात तथा शाकल्य संहिता के ब्रह्म सिद्धांत में आठ सिद्धांतों
के होने की चर्चा मिलती है। किंतु सभी ने
सूर्य सिद्धांत को ही सबसे अधिक मान्य प्रामाणिक और शुद्ध माना है। ज्योतिर्विज्ञान
की प्राचीनता के अतिरिक्त यह निर्विवाद है कि गणित और ज्योतिष शास्त्र सारे
संसार में भारत से ही फैले हैं। खगोल और भूगोल विद्या भी ज्योतिष के अंग हैं।
सामान्य भाषा में शून्य का अर्थ आकाश होता है। पर ज्योतिष के अनुसार आकाश शून्य
(
खाली ) नहीं है। इसमें अनेक ग्रहों , नक्षत्रों और
तारामंडल की अवस्थिति है। आकाश को प्राचीन ऋषियों ने तीन भागों में विभक्त किया
है ...
क. पृथ्वी ख.
अंतरिक्ष और ग. द्यूलोक । नक्षत्र मंडल को भी राशिचक्रों में विभाजित किया गया है
और प्रत्येक राशि के साथ सूर्य के संक्रमण को देखकर 12 राशियों के नाम पर 12 सोर
मास तथा पूर्णिमा की रात में नक्षत्र विशेष के साथ चंद्रमा की सन्निकटता के आधार
पर चांद्रमासों का विधान किया गया। जिस मास की पूर्णिमा चित्रा नक्षत्र से युक्त
थी , उसे चैत , विशाखा से युक्त को बैशाख , ज्येष्ठा से ज्येष्ठ , पूर्वाषाढ
या उत्तराषाढ से आषाढ , श्रवण से श्रावण , पूर्व एवं उत्तर भाद्रपद से भाद्रपद ( भादो
) ,
अश्विनी से आश्विन , कृतिका से कात्रिक , मृगशिरा से मार्गशीर्ष ( अगहन
,
पुष्य से पौष , मघा से माघ तथा पूर्वा और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र से फाल्गुन
महीने का नामकरण हुआ। इसी तरह वारों या दिनों के नाम भी ग्रहों के प्रात:कालीन
स्थिति के आधार पर हैं और इनका क्रम पूर्णत: वैज्ञानिक है।
भारतीय ज्योतिष में
चिंतन और प्रयोग का बराबर महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जयपुर और दिल्ली की
वेधशालाएं इनकी प्रयोग धर्मिता के प्रमाण हैं, केवल बंधे बंधाए सूत्रों पर यह नहीं
चलता रहा है , अन्यथा आर्यभट्ट वराहमिहिर , ब्रह्मगुप्त का कोई स्थान नहीं
होता। वशिष्ठ , लोमश , अत्रि , आर्यभट्ट एवं ब्रह्मगुप्त से लेकर कृष्णमूर्ति
तक भारतीय ज्योतिष को नया आयाम देने की परेपरा चलती आ रही है , चाहे वह गणित के
क्षेत्र में हो या फलित के क्षेत्र में। ज्योतिष में व्यास , वशिष्ठ , मृग ,
पराशर के बाद , सत्याचार्य और उसके बाद प्रसिद्ध वैज्ञानिक ज्योतिषाचार्य वाराह
मिहिर हुए , जिन्होने इस विद्या को व्यवस्थित किया। 20वीं सदी में उल्लेखनीय स्वर्गीय
सूर्य नारायण राव , श्री लक्ष्मण दास मदान , डॉ वी भी रमण , डॉ कृष्णमूर्ति और
भगवान दास मित्तल रहें। डॉ रमण की अंग्रेजी की पत्रिका ‘द एस्ट्रोलोजिकल मैगजीन’
ने देश विदेश में भारतीय ज्योतिष की महानता को उजागर किया है। उनके संपादकीय देश
विदेश के राजनीतिक उतार चढाव के लिए काफी चर्चित रहे हैं। नवीनता के संदर्भ में
श्री भगवान दास मित्तल का बहुत बडा योगदान रहा , जिन्होने राशि से अधिक महत्वपूर्ण
लग्न को समझा और इनकी सारी विवेचनाएं इसी पर आधारित रही हैं। श्री कृष्णमूर्ति
भी ज्योतिष को पूर्ण विज्ञान का दर्जा दिलाने में अग्रसर रहे हैं। उनका ज्योतिष
पंचांग एवं अयनांश शत प्रतिशत शुद्ध है। इसी प्रकार पत्रिका बाबाजी राजनैतिक और व्यक्तिगत
भविष्यवाणी , भूकम्प , भ्रष्टाचार , सनसनीखेज हत्याएं और दुर्घटनाओं की शत
प्रतिशत भविष्यवाणियों के लिए नाम कमा चुकी है। इसके संपादक श्री मदान जी इस
प्रकार की घटनाओं का अंदाजा ग्रहों की चाल से लगाते हैं। इसी प्रकार ‘ज्योतिष
तंत्र विज्ञान’ , ‘तंत्र मंत्र यंत्र विज्ञान’ ‘ज्योतिष्मती’ , ज्योतिष धाम’
आदि पत्रिकाओं के संपादक अपनी अपनी पत्रिका के माध्यम से ज्योतिष विज्ञान का
प्रचार प्रसार करते आ रहे हैं।
ज्योतिष के क्षेत्र
में पिता से शिक्षा ग्रहण करने और पुत्री से सहयोग प्राप्त करने की परंपरा भी
प्राचीन काल से ही चली आ रही है। लीलावती ने अपने पिता से ही ज्योतिष का ज्ञान
प्राप्त किया था। अपने पिता के मरणोपरांत उनकी पुत्री श्रीमती सुप्रिया जगदीश ही
‘ज्योतिष्मती’ का संपादनभार संभाल रही है। श्रीमती गायत्री देवी वासुदेवन ‘द एस्ट्रोलोजिकल
मैगजीन’ के संपादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। इसी ज्योतिष विज्ञान की
विकास दशा एवं नव्य दिशा बुद्धि की परंपरा में प्रस्तुत पुस्तक ‘गत्यात्मक
दशा पद्धति: एक परिचय’ का प्रणयण गणित विषय में कुशाग्र प्रज्ञा समृद्ध लेखिका श्रीमती
संगीता पुरी ने किया है। यह विद्या उन्हें स्वनाम धन्य तेजस्वी ज्योतिषी पिता
श्री विद्या सागर महथा , ज्योतिष वाचस्पति , ज्योतिष रत्न से प्राप्त हुई है
, जिन्होने लगभग पूरी आयु ज्योतिष के अध्ययन मनन और चिंतन में लगायी है। दशा
पद्धति की गत्यात्मक पद्धति उनके चिंतन और अन्वेषण का परिणाम हैं, जिसे विरासत
के रूप में उनकी पुत्री ने उनसे पूरी अर्हता के साथ ग्रहण किया है। पुस्तक की
विषय वस्तु , प्रमेयों , प्रतिपत्तियों , निष्कर्षों और तार्किक विश्लेषणों से
यह सहज ही विश्वास होता है कि इस पुस्तक से फलित ज्योतिष को एक नई और मौलिक
चिंतन दिशा मिलेगी। फलित ज्योतिष के क्षेत्र में गत्यात्मक दशा पद्धति की यह
पहली कृति है , जिसका श्रेय लेखिका को मिलेगा। फलित ज्योतिष की पिटी पिटायी
परंपराओं के यांत्रिक विवेचन से हटकर वैज्ञानिक ज्योतिषीय तथ्यों का प्रादुष
विवेचन इस पुस्तक की विशेषता है , जो अभी तक फलित ज्योतिष के एकमेव आश्रय
विंशोत्तरी पद्धति की शरणागति की अनिवार्यता को अस्वीकार करती है।
विंशोत्तरी पद्धति
के स्थान पर ज्योतिष में वर्णित ग्रहों की अवस्था को क्रमानुसार स्थान पुस्तक
की विवेच्य प्रणाली में दिया गया है , लेखिका की मान्यता है कि बाल्यावस्था
में प्रभावित करनेवाला उपग्रह चंद्रमा है , भले ही जातक का जन्म किसी भी नक्षत्र
में हुआ हो। इसी तरह वृद्धावस्था को प्रभावित करने वाले ग्रह बृहस्पति और शनि
हैं। इसका कारण यह है कि फलित ज्योतिष में वृद्धावस्था का ज्ञानी ग्रह बृहस्पति
माना गया है , उत्तर वृद्धावस्था के प्रतीक ग्रह के रूप में शनि की मान्यता है।
इस दशा पद्धति में ग्रहों का कालक्रम क्रमश: चंद्र , बुध , मंगल , शुक्र , सूर्य ,
बृहस्पति , शनि , यूरेनस , नेप्च्यून और प्लूटो को रखा गया है। जन्म नक्षत्र
पर इस दशाकाल की कोई आश्रिति नहीं है। इस मौलिक दशा पद्धति के जन्म दाता श्री
विद्या सागर महथा की मान्यता है कि सभी ग्रहों के दशाकाल को संचालित करने का
अधिकार मात्र चंद्रमा को देना सर्वथा अवैज्ञानिक है। अपने दशाकाल में सभी ग्रह
अपनी बल स्थिति अपनी गत्यात्मकता के अनुसार संभालेंगे , यह सहज वैज्ञानिक बुद्धि
से समर्थित और पुष्ट होता है।
इस दशा पद्धति में
राहू और केतु कोई आकाशीय पिंड नहीं है ,
भौतिक विज्ञान के अनुसार पदार्थ की अनुपस्थिति में शक्ति या ऊर्जा की
परिकल्पना नहीं की जा सकती। प्रस्तुत दशा पद्धति में एक ओर ग्रहों के दशा काल
में निश्चित कालक्रम को स्थान दिया गया है , तो उसी वैज्ञानिकता से ग्रहों में
बलाबल की परंपरागत रीति से हटकर विचार किया गया है। इसमें चेष्टा बल , दिकबल , स्थानबल
, अष्टकवर्ग बल आदि से भिन्न ग्रहों के गत्यात्मक और स्थैतिक बल को तथा
ग्रहों की गमता को ग्रह बल का मुख्य आधार माना गया है। जो हो , यह तो सभी मानेंगे
कि जिस विधि से संपूर्ण जीवन की तिथियुक्त भविष्यवाणी बहुत ही आत्मविशवास के
साथ और सही सही की जा सके , वही विधि अंतत: लोकग्राह्य होगी।
यूरेनस, नेप्च्यून
तथा प्लूटो आदि पाश्चात्य मान्यता के ग्रहों की स्वीकृति तथा भारतीय फलित ज्योतिष
में उसका सन्निवेश भी इस बात का प्रमाण है कि लेखिका अबतक की रूढ परंपराओं में
बंधी नहीं होकर प्राच्य और पाश्चात्य पुरातन और अर्वाचीन दोनो की उपयोगी ज्योतिषीय
पद्धतियों का स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं किया है। ‘ या नो भद्रा तत्वो यन्तु
विश्वस्त:’ ( सारे विश्व से भद्र विचार हमारे पास आवें) के
आर्ष वाक्य के अनुदेश के सर्वथा अनुकूल हैं। नए रास्ते पर चलनेवाले पहले व्यक्ति
को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पडता है। उसके लिए सारस्वत स्वीकृति सहज
नहीं होती। ऐसी ही परिस्थिति में महाकवि कालिदास ने कहा था ....
पुराणमित्येव न साधु सर्वं ,
न चापि सर्व नवमित्यवद्यम ।
सन्त: परिक्ष्याण्यतरद् भजन्त , मूढ: पर प्रत्ययनेय बुद्धि ।।
‘जो पुराना है , वह
न तो सबका सब ठीक है और न जो नया है वह सभी केवल नया होने के कारण अग्राह्य है।
साधु बुद्धि के लोग दोनो की परीक्षा करके स्वीकार और अस्वीकार करते हैं , दूसरों
के कहने पर तो मूढ ही राय बनाते हैं’
मेरा विश्वास है कि
प्रस्तुत पुस्तक अपनी मौलिकता और विवेचन बल पर ज्योतिषीय जगत में अपने आदर का
स्थान स्वयमेव बना लेगी और इसकी प्रतिभापूर्ण लेखिका एक नए हस्ताक्षर के रूप
में सम्मान अर्जित करेंगी , ऐसा ही हो , यह मेरा आशीर्वचन तथा शुभांशसा दोनो है।
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नक्षत्र शास्त्रीय पत्र पत्रिकाओं में
लेखिका की जो रचनाएं स्वागत पा रही हैं , उससे मेरी इन आशाओं और विश्वासों को
मूर्त्त होने की आश्वस्ति मिलती है।
इत्यलम् इतिशुभम
डॉ विश्वंभर नाथ
पांडेय
एम ए , एल एल बी, पी
एच डी
निदेशक , भारतीय
संस्कृति एवं लोक सेवा संस्थान
भूतपूर्व प्राचार्य
, रांची कॉलेज , रोची , झारखंड