दो-तीन महीने के पूरे घटनाक्रम को देखकर मालूम हो गया। ऊपरवाली सरकार जो चाहती है वो करवा लेती है। ऊपर से यमराज ने महामारी के रूप मे यमदूतों को भेज दिया तो बचना मुश्किल है। देश का इतना बड़ा लॉक डाउन का निर्णय कुछ काम न आया। गाँव -गाँव मे कोरोना को फैलने का मौका मिल गया। मजदूरों को समझा-बूझाकर बड़े बड़े अपने शहर मे रखकर तीन महीने के चावल-रोटी का खर्च न तो सरकार कर सकी और न उद्योगपति कर पाए। न क्रिकेट के खिलाडी और न फ़िल्म जगत ही, वोट के लिए घर घर पहुँच जाने वाले पक्ष या विपक्ष किसी भी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता भी नहीं।
आज दादाजी की बात बहुत याद आ रही है, 'घर की रोटी आधी भली !' महानगर बड़े लोगों के लिए होता है ! मजदूरों, सामान्य नौकरी पेशा करनेवालों के लिए नहीं होता ! अब चेत जाएँ गाँव के लोग ! आनेवाले दिनों मे देश मे ऐसी व्यवस्था लाने की जरूरत है कि लोग अपने घर से ही पढ़ाई, अपने घर से ही नौकरी कर सकें ! किराये या EMI के खर्चे न हो ! माता-पिता-पत्नी-बच्चों के साथ रह सके ! बहुत उच्च स्तर की पढ़ाई या नौकरी के लिए ही महानगर की आवश्यकता हो ! बाकी की अपने अपने जिले - राज्य के अंदर ही ! दसवीं पास करते ही बच्चों को बाहर भेजो ! ऐसी मजबूरी न बालकों न अभिभावकों के लिए उचित है ! आनेवाले समय मे सरकार के सामने बहुत बड़ी जवाबदेही होगी ! और गांववालों के सामने भी ! जो मजदूर महानगर मे बच जायेंगे, उनके लिए अच्छा ही अच्छा होगा !
अनिश्चितता के कारण दूर दूर तक बाजार मे मांग की कमी है। लोग सिर्फ आवश्यक आवश्यता पर ही फोकस कर रहे हैं। हर क्षेत्र के उद्योगपति निराशा मे हैं, मकान मालिकों को इतना आत्मविश्वास कहाँ से आ रहा है कि उन्हें नए किरायेदार मिल जायेंगे। बसे बसाये पुराने किरायेदारों को निकाल भगा रहे हैं। सरकार ने अपने नुकसान की परवाह न करके थोड़े देर से ही सही, पर लॉक डाउन की घोषणा तो की। सरकार ने स्पष्ट बोल था कि ये तीन महीने हमें अपने घर के अंदर रहकर काटने हैं, जो समर्थ हैं अपने खाने पीने की व्यवस्था करें, गरीबों के खाने की व्यवस्था सरकार करेगी। जिनतक सरकार नहीं पहुँच पाए, उनतक समाज के लोग मदद करें। भीषण संकट की घडी है, व्यवसायी अपने एम्प्लाइज के खाने पीने की व्यवस्था करें। मकान मालिक किराया न लें, बैंक EMI न लें।
कोरोना से जंग सभी देशवासियों को मिलकर जीतना था। सरकार तीन महीने के लिए निम्न आय वाले परिवारों को खाने की व्यवस्था कर रही थी। मध्यम आय वाले तीन महीने के खाने की व्यवस्था खुद कर रहे थे। उच्च वर्ग सरकार को दान देकर भारत को इस बीमारी से लड़ने के लिए तैयार कर रहे थे। सरकार के निर्देश के बावजूद बैंकों EMI लिया , मकान मालिकों ने किराया लिया। प्राइवेट स्कूल फीस लेने के लिए बेचैन हैं। कंपनी के मालिक एम्लॉईज के खाने-रहने की व्यवस्था नहीं पाए , उन्हें भी कोरोना के मामले मे देश का साथ नहीं देता हुआ माना जाना चाहिए।
यदि ये सब होता तो कोरोना के केसेज इतने न बढ़ते, गड़बड़ी कहाँ कहाँ आयी, आपलोग ध्यान दें। मैं तो इतना कहूंगी कि जनता ने इस लॉक डाउन को गंभीरता से नहीं लिया। प्रशासन को, पुलिस को, डॉक्टर्स को, नर्सों को काफी दवाब आया। जो बाहर न निकले, वे भी सोसाइटी में पिकनिक मनाते दिखें। घर में किसी एक को सर्दी-बुखार हुआ तो किसी ने खुद से क्वैरेन्टाइन नहीं किया। पूरे घर, सोसाइटी में घूमते मिले। लोगों ने कोरोना की गंभीरता को नहीं समझा। मजदूरों को स्थायित्व का खतरा दिखा। फुर्सत में होम सिकनेस बना, रोज रोज भीड़ इकट्ठी करते रहें।
लॉक डाउन के तीसरे दिन से ही यत्र-तत्र जो भीड़ दिखी, वह इसी ओर इशारा करती है। हर जगह सिर्फ लाचारों की भीड़ नहीं थी, हठी की भी भीड़ थी। तीन महीने तो किसी तरह गुजारने थे, सबलोगों को घर में रहकर जीवन जी लेना था, कुछ भी खाकर। सब्जी, दूध की इतनी मारामारी क्यों, हमारे जनरेशन तक पहुँचने के लिए हमारे पूर्वजों ने कितनी मेहनत की है हम भूल गए। संकट के समय जानवर भी एकजुटता को महत्व देते आये हैं, लेकिन हमें नहीं देनी थी ।
कुल मिलाकर एक बात कही जा सकती है कि एकजुटता की कमी से भारत ने बहुत जगह हार मानी है, लोग माने न माने कोरोना काल का इतिहास भी एकजुटता की कमी का इतिहास बनेगा। उनके द्वारा की जानेवाली लापरवाही भविष्य में सबको कोरोना के चक्र में झोंकेगी, जबतक गलती का अहसास होगा, काफी देर हो चुकी होगी। एक बात यह भी है कि जिस देश मे जागरूकता इतनी कम हो कि हेलमेट और सीट बेल्ट भी फाइन के डर से पहनते हों, वहाँ जनता से कुछ उम्मीद करनी भी बेकार है. हमारे यहाँ अभी कोरोना नहीं आया है, यह बात देशभर मे हर जगह हर महीने फेल हो रही है, फिर भी अभीतक लोग यही बात कर रहे हैं.