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गत्यात्मक ज्योतिष के बारे में संपूर्ण ज्योतिष ज्ञान देना आवश्यक है, क्योंकि भारत के बहुत सारे लोगों को शायद इस बात का ज्ञान भी न हो कि विगत कुछ वर्षों में उनके अपने देश में ज्योतिष की एक नई शाखा का विकास हुआ है,जिसके द्वारा वैज्ञानिक ढंग से की जानेवाली सटीक तिथियुक्त भविष्यवाणी जिज्ञासु बुद्धिजीवियों के मध्य चर्चा का विषय बनी हुई है। सबसे पहले दिल्ली से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ‘बाबाजी’ के 1994-1995-1996 के विभिन्न अंकों में तथा ज्योतिष धाम के कई अंकों में गत्यात्मक ज्योतिष के ज्योतिष के बुद्धिजीवी पाठकवर्ग के सम्मुख मेरे द्वारा ही रखा गया था ।
जनसामान्य की जिज्ञासा को देखते हुए 1997 में दिल्ली के एक प्रकाशक ‘अजय बुक सर्विस’ के द्वारा मेरी पुस्तक ‘गत्यात्मक दशा पद्धति: ग्रहों का प्रभाव’ पहले परिचय के रुप में पाठकों को पेश की गयी। इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखते हुए रॉची कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य डॉ विश्वंभर नाथ पांडेयजी ने ‘गत्यात्मक दशा पद्धति’ की प्रशंसा की और असके शीघ्र ही देश-विदेश में चर्चित होने कामना करते हुए हमें जो आशीर्वचन दिया था, वह इस पुस्तक के प्रथम और द्वितीय संस्करण के प्रकाशित होते ही पूर्ण होता दिखाई पड़ा।
इस पुस्तक की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि शीघ्र ही 1999 में इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण प्रकाशित करवाना पड़ा। पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् हर जगह ‘गत्यात्मक ज्योतिष चर्चा का विषय बना रहा । कादम्बिनी पत्रिका के नवम्बर 1999 के अंक में श्री महेन्द्र महर्षिजी के द्वारा इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया। जैन टी वी के प्रिया गोल्ड फ्यूचर प्रोग्राम में भी इस पद्धति की चर्चा-परिचर्चा हुई। दिल्ली के बहुत से समाचार-पत्रों में इस पद्धति पर आधारित लेख प्रकाशित होते रहें।
गत्यात्मक ज्योतिष के विकास की चर्चा के आरंभ में ही इसका प्रतिपादन करनेवाले वैज्ञानिक ज्योतिषी श्री विद्यासागर महथा का परिचय आवश्यक होगा ,जिनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही गत्यात्मक ज्योतिष के जन्म का कारण बना। महथाजी का जन्म 15 जुलाई 1939 को झारखंड के बोकारो जिले में स्थित पेटरवार ग्राम में हुआ। एक प्रतिभावान विद्यार्थी कें रुप में मशहूर महथाजी रॉची कॉलेज ,रॉची में बी एससी करते हुए अपने एस्ट्रॉनामी पेपर के ग्रह नक्षत्रों में इतने रम गए कि ग्रह-नक्षत्रों की चाल और उनका पृथ्वी के जड़-चेतन पर पड़नेवाले प्रभाव को जानने की उत्सुकता ही उनके जीवन का अंतिम लक्ष्य बन गयी। उनके मन को न कोई नौकरी ही भाई और न ही कोई व्यवसाय। इन्होने प्रकृति की गोद में बसे अपने पैतृक गॉव में रहकर ही प्रकृति के रहस्यों को ढूंढने का फैसला किया।
ग्रह नक्षत्रों की ओर गई उनकी उत्सुकता ने उन्हें ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन को प्रेरित किया। गणित विषय की कुशाग्रता और साहित्य पर मजबूत पकड़ के कारण तात्कालीन ज्योतिषीय पत्रिकाओं में इनके लेखों ने धूम मचायी। 1975 में उन्हीं लेखों के आधार पर ‘ज्योतिष-मार्तण्ड’ द्वारा अखिल भारतीय ज्योतिष लेख प्रतियोगिता में इन्हें प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। उसके बाद तो ज्योतिष-वाचस्पति ,ज्योतिष-रतन,ज्योतिष-मनीषी जैसी उपाधियों से अलंकृत किए जाने का सिलसिला ही चल पड़ा।1997 में भी नाभा में आयोजित सम्मेलन में देश-विदेश के ज्योतिषियों के मध्य इन्हें स्वर्ण-पदक से अलंकृत किया गया।
विभिन्न ज्योतिषियों की भविष्यवाणी में एकरुपता के अभाव के कारणों को ढूंढ़ने के क्रम में इनके वैज्ञानिक मस्तिष्क को ज्योतिष की कुछ कमजोरियॉ दृष्टिगत हुईं। फलित ज्योतिष की पहली कमजोरी ग्रहों के शक्ति-आकलन की थी।ग्रहों के शक्ति निर्धारण से संबंधित सूत्रों की अधिकता भ्रमोत्पादक थी,जिसके कारण ज्योतिषियों को एक निष्कर्ष में पहुंचने में बाधा उपस्थित होती थी। हजारो कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद इन्होने ग्रहों की गत्यात्मक शक्ति को ढूंढ निकाला। ग्रह-गति छः प्रकार की होती है----
अतिशीघ्री , 2.शीघ्री , 3. सामान्य , 4. मंद , 5.वक्र , 6.अतिवक्र ।
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अपने अध्ययन में इन्होनें पाया कि किसी व्यक्ति के जन्म के समय अतिशीघ्री या शीघ्री ग्रह अपने अपने भावों से संबंधित अनायास सफलता जातक को जीवन में प्रदान करते हैं। जन्म के समय के सामान्य और मंद ग्रह अपने-अपने भावों से संबंधित स्तर जातक को देते हैं। इसके विपरीत वक्री या अतिवक्री ग्रह अपने अपने भावों से संबंधित निराशाजनक वातावरण जातक को प्रदान करते हैं। 1981 में सूर्य और पृथ्वी से किसी ग्रह की कोणिक दूरी से उस ग्रह की गत्यात्मक शक्ति को प्रतिशत में निकाल पाने के सूत्र मिल जाने के बाद उन्होने परंपरागत ज्योतिष को एक कमजोरी से छुटकारा दिलाया।
फलित ज्योतिष की दूसरी कमजोरी दशाकाल-निर्धारण से संबंधित थी। दशाकाल-निर्धारण की पारंपरिक पद्धतियॉ त्रुटिपूर्ण थी। अपने अध्ययनक्रम में उन्होने पाया कि ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ग्रहों की अवस्था के अनुसार ही मानव-जीवन पर उसका प्रभाव 12-12 वर्षों तक पड़ता है। जन्म से 12 वर्ष की उम्र तक चंद्रमा ,12 से 24 वर्ष की उम्र तक बुध ,24 से 36 वर्ष क उम्र तक मंगल ,36 से 48 वर्ष की उम्र तक शुक्र ,48 से 60 वर्ष की उम्र तक सूर्य ,60 से 72 वर्ष की उम्र तक बृहस्पति , 72 से 84 वर्ष की उम्र तक शनि,84 से 96 वर्ष की उम्र क यूरेनस ,96 से 108 वर्ष क उम्र तक नेपच्यून तथा 108 से 120 वर्ष की उम्र तक प्लूटो का प्रभाव मनुष्य पड़ता है। विभिन्न ग्रहों की एक खास अवधि में निश्चित भूमिका को देखते हुए ही ‘गत्यात्मक दशा पद्धति की नींव रखी गयी। अपने दशाकाल में सभी ग्रह अपने गत्यात्मक और स्थैतिक शक्ति के अनुसार ही फल दिया करते हैं। इस तरह इन्होने कुंडली देखने का तरीका निकाला।
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गत्यात्मक दशा पद्धति के अनुसार जन्मकुंडली में किसी भाव में किसी ग्रह की उपस्थिति महत्वपूर्ण नहीं होती , महत्वपूर्ण होती है उसकी गत्यात्मक शक्ति , जिसकी जानकारी के बिना भविष्यवाणी करने में संदेह बना रहता है। गोचर फल की गणना में भी ग्रहो की गत्यात्मक और स्थैतिक शक्ति की जानकारी आवश्यक है। इस जानकारी पश्चात् तिथियुक्त भविष्यवाणियॉ काफी आत्मविश्वास के साथ कर पाने के लिए ‘गत्यात्मक गोचर प्रणाली’ का विकास किया गया ।
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गत्यात्मक दशा पद्धति एवं गत्यात्मक गोचर प्रणाली के विकास के साथ ही ज्योतिष एक वस्तुपरक विज्ञान बन गया है , जिसके आधार पर सारे प्रश्नों के उत्तर हॉ या नहीं में दिए जा सकते हैं। गत्यात्मक ज्योतिष की जानकारी के पश्चात् समाज में फैली धार्मिक एवं ज्योतिषीय भ्रांतियॉ दूर की जा सकती हैं ,साथ ही लोगों को अपने ग्रहों और समय से ताल-मेल बिठाते हुए उचित निर्णय लेने में सहायता मिल सकती है। यही नहीं, बुरे ग्रहों के प्रभाव को दूर करने के लिए किए जाने वाले उपचार भी बिल्कुल वैज्ञानिक और परंपरागत ज्योतिष से बिल्कुल भिन्न है।
आनेवाले गत्यात्मक युग में निश्चय ही गत्यात्मक ज्योतिष ज्योतिष के महत्व को सिद्ध करने में कारगर होगा ,ऐसा मेरा विश्वास है और कामना भी। लेकिन सरकारी,अर्द्धसरकारी और गैरसरकारी संगठनों के ज्योतिष के प्रति उपेक्षित रवैये तथा उनसे प्राप्त हो सकनेवाली सहयोग की कमी के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त करने में कुछ समय लगेगा , इसमें संदेह नहीं है। ( संपूर्ण ज्योतिष ज्ञान )