What makes someone an untouchable in india
युगों युगों से मानव-जाति को खतरनाक बैक्टीरिया और वायरस से जूझना पड़ता है - पूरी दुनिया के हर देश की हर क्षेत्र की टीमें एक छोटे से वायरस कोरोना की महामारी से लड़ने में व्यस्त है। कहते हैं, इससे पहले प्लेग की महामारी 1918 से 1920 के मध्य आयी थी। इन दोनों महामारियों के मध्य का दशक 1960 से 1970 के मध्य का है, जिस समय मैंने होश सम्भाला था। वह दशक मेडिकल के क्षेत्र में आज की तरह विकसित नहीं था, कई बीमारियाँ लोगों को मौत के मुँह में धकेल देती थी। हालाँकि देखा जाये तो आज का मेडिकल साइंस पुरानी बीमारियों से लड़ने में भले ही समर्थ हो गया हो, पर आज भी कई बड़ी बड़ी बीमारियां इसे चुनौती देती ही रहती है। हाल-फिलहाल बीमारी होने की चिंता से बेफिक्र लोग सावधानी कम बरत रहे थे, पर पुराने समाज ने इसलिए लोगों ने अपने जीवनशैली को इस ढंग से बनाया हुआ था कि बीमारियों से कम जूझना पड़े। जिस साफ सफाई और क्वैरेन्टाइन से आज कोरोना से जंग जीतने की कोशिश आज मेडिकल साइंस कर रहा है, वह मैंने होश सँभालते ही देखा था।
युगों युगों से मानव-जाति को खतरनाक बैक्टीरिया और वायरस से जूझना पड़ता है - पूरी दुनिया के हर देश की हर क्षेत्र की टीमें एक छोटे से वायरस कोरोना की महामारी से लड़ने में व्यस्त है। कहते हैं, इससे पहले प्लेग की महामारी 1918 से 1920 के मध्य आयी थी। इन दोनों महामारियों के मध्य का दशक 1960 से 1970 के मध्य का है, जिस समय मैंने होश सम्भाला था। वह दशक मेडिकल के क्षेत्र में आज की तरह विकसित नहीं था, कई बीमारियाँ लोगों को मौत के मुँह में धकेल देती थी। हालाँकि देखा जाये तो आज का मेडिकल साइंस पुरानी बीमारियों से लड़ने में भले ही समर्थ हो गया हो, पर आज भी कई बड़ी बड़ी बीमारियां इसे चुनौती देती ही रहती है। हाल-फिलहाल बीमारी होने की चिंता से बेफिक्र लोग सावधानी कम बरत रहे थे, पर पुराने समाज ने इसलिए लोगों ने अपने जीवनशैली को इस ढंग से बनाया हुआ था कि बीमारियों से कम जूझना पड़े। जिस साफ सफाई और क्वैरेन्टाइन से आज कोरोना से जंग जीतने की कोशिश आज मेडिकल साइंस कर रहा है, वह मैंने होश सँभालते ही देखा था।
साफ़-सफाई का ध्यान रखना आवश्यक है - सबके घर में दैनिक कार्यों से निवृत होकर नहाने-धोने तक की व्यवस्था घर से बाहर होती थी। बिना नहाये-धोये खाना बनाना या खाना - दोनों की मनाही थी। शाम को बाहर से काम करके घर लौटे बड़े-बुजुर्ग और खेलकर आये बच्चे - सभी मुँह, हाथ-पैर धोकर ही अंदर आते थे। नहाने से पहले ही हर दिन सुबह-सुबह घर-द्वार-गौशाले, सारे बर्तन और कपडे की सफाई करना जरूरी था। रसोई और खाने की जगह प्रतिदिन गाय के गोबर से लीपा जाता। आँगन, द्वार पर गोबर के घोल का छींटा डालकर झाड़ू लगाई जाती। अमीर लोग सहायक-सहायिकाओं से करवाते, गरीब खुद करते, लेकिन सफाई का पूरा ख्याल करते थे। WHO ने हाथ धोने का जो तरीका बताया है, हमारी या उससे पहले की पीढ़ी को बचपन में माता-पिता द्वारा अवश्य ही सिखाया गया होगा। आज के ज़माने के साबुन, हैंडवाश तो नहीं थे, पर लकड़ी की राख से हम उँगलियों की पोरों, अंगूठो और हाथ के ऊपरी-निचले भागों को आराम से साफ़ किया करते थे। धोने के बाद भी चप्पल घर से बाहर रखते, खासकर रसोई में तो चप्पल ले जाने की अनुमति ही नहीं थी। हो सकता है, उस वक्त तक भी पहले वाले कुछ नियम गायब हो गए होंगे, लेकिन बाद में तो काफी तेजी से ये नियम समाप्त होते चले गए।
Corona aur khane-pine kee adat
लोगों को खाने-पीने की आदतें सुधारनी होगी - घर में काम पर किसी को रखने में यह ध्यान दिया जाता था कि उनके समाज के लोगों का खाना-पीना क्या है ? रसोई में आने की अनुमति अपने घर के लोगों के अलावा ब्राह्मणों को ही थी। गरीब ब्राह्मणों की महिलाएं घर में खाना बना सकती थी, भोज वगैरह में गरीब ब्राह्मण पुरुष इस कार्य को संभालते थे। शाकाहारी परिवारों में शाकाहारी ब्राह्मण और मांसाहारी परिवारों में मांसाहारी ब्राह्मण इस कार्य को सँभालते। अधिकांश मांसाहारी परिवारों में मांसाहार के चूल्हे, बर्तन, हंसिया आदि अलग रखे जाते। प्रतिदिन का खाना उसमे नहीं बनता था। कारण चाहे जो भी हो, माँसाहार में भी मछली और बकरे का ही प्रचलन समाज में अधिक था, इसलिए इसका भक्षण करनेवाले समाज का आँगन तक प्रवेश था। वे हमारे घर-आँगन-द्वार-गौशाले की सफाई कर सकती थी, हमारे बर्तन और कपडे धो सकती थे। हमारे आँगन में खाना खा सकती थी। मुर्गे और अन्य चीजें खानेवालों को घर में प्रवेश नहीं था, यहाँ तक कि घर के मर्द होटल, पिकनिक में मुर्गा खा लें, महिलायें मुर्गे से छू भी जाएँ तो स्नान करने के बाद ही घर में आ सकते थे। ऐसे चीजों को खानेवालों का आँगन में प्रवेश वर्जित था, ये खेत में काम कर सकते थे। बीमारी को जन्म देनेवाले बहुत रिस्क वाले पेशे वाले लोगों से तो समाज में पूरा परहेज किया जाता रहा। हो सकता है, इन सबसे भी कभी-कभी बीमारी फैली हो, उन्हें जानकारी हो।
coronavirus and intouchability
क्या छुआछूत किसी युग का विज्ञान रहा है ? - इतने परहेज और साफ़-सफाई के बावजूद बीमारी तो हर घर में दस्तक दे ही देती थी। पर किसी एक में बीमारी का लक्षण दीखते ही उसे पूरे परिवार या समाज से अलग कर दिया जाता था, खासकर संक्रमण वाले बीमारी से बचने के लिए तो अवश्य ही ऐसा किया जाता था। कुत्ते, साँप आदि के काटने पर भी ऐसा ही किया जाता था। उन्हें अलग बर्तन में खाना दिया जाता था, उनके कपडे-बिस्तर अलग से धोये जाते थे। अलग से नहलाया जाता था, साथ खेलने तक की अनुमति नहीं होती थी। जिस तरह बीमारी होने के बाद लोगों को अलग रखा जाता था, उसी तरह रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी रखनेवालों को भी सबसे अलग रखा जाता। उनका सोना-जागना-स्नान-हर कार्य का समय होता, उनके लिए विशेष पौष्टिक और रोग-प्रतिरोधक क्षमता युक्त खाना बनता। माहवारी के दिनों में महिलाओं, प्रसूता और नवजात को काफी दिनों तक परिवार से अलग सुरक्षित रखा जाता था। आज के युग में कोरोना बीमारी ने हमारे देशवासियों को यह ज्ञान दिया है कि अस्पृश्यता समाज के लिए अभिशाप नहीं, वरदान था। क्या अस्पृश्यता उस युग का विज्ञान था ? मुझे तो ऐसा लगता है, आपको ?
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